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________________ द्वितीय परिच्छेद १५५ तरों में उपार्जित जो जो तुमारे शुभाशुभ कर्म हैं, तिनों के अनुसार तुम को ईश्वर फल देता है, तो फिर तुमारे कहने ही से ईश्वर के स्वतंत्रपने को जलांजलि दी गई। क्योंकि जब हमारे कर्मों के बिना ईश्वर फल नहीं दे सकता, तब तो ईश्वर के कुछ अधीन नहीं है । जैसे हमारे कर्म होंगे, तैसा हम को फल मिलेगा । जेकर कहो कि ईश्वर जो इच्छे, सो करे, तब तो कौन जानता है कि ईश्वर क्या करेगा ? क्या धर्मियों को नरक में और पापियों को स्वर्ग में भेजेगा ? जेकर कहो कि परमेश्वर न्यायी है । जो जैसा करेगा, उस को वैसा ही वोह फल देता है । तो फिर वोही परतंत्रता रूप दूषण ईश्वर में मा लगेगा । तथा - ईश्वर नित्य है, यह कहना भी अपने घर ही में सुन्दर लगता है । क्योंकि नित्य तो उस वस्तु तीनों कालों में एक रूप को कहते हैं, जो रहे, जब ईश्वर नित्य है, तो क्या उस में नित्यता का प्रतिवाद जगत् को बनाने वाला स्वभाव है या नहीं ? जेकर कहोगे कि ईश्वर में जगत् रचने का स्वभाव है, तब तो ईश्वर निरंतर जगत् को रचा ही करेगा, कदापि रचने से चन्द न होगा, क्योंकि ईश्वर में जगत् के रचने का स्वभाव नित्य है । जेकर कहोगे कि ईश्वर में जगत् रचने का स्वभाव नहीं है, तब तो ईश्वर जगत् को कदापि न रच सकेगा । क्योंकि जगत् रचने का स्वभाव ईश्वर में है ही नहीं ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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