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________________ ૨૪ર - जैनतत्त्वादर्श प्रवृत्त नहीं करता, किंतु यह जीव आप ही प्रवृत्त, होते हैं। जीव जैसा जैसा कर्म करते हैं, उस कर्म के अनुसार ईश्वर भी तैसा तैसा फल उन जीवों को देता है । जैसे राजा चोरी आदि करने पर दण्ड देता है; परन्तु वह चोर को ऐसे नहीं कहता, कि तूं चोरी कर; कितु चोरी करने की मनाई तो अवश्य करता है । फिर जेकर चोर चोरी करेगा, तब तो राजा उस को अवश्य दण्ड देवेगा; क्योंकि यह उस का कर्तव्य है । तैसे ही ईश्वर पाप तो नहीं कराता, परंतु पाप करने वालों को दण्ड अवश्य देता है। सिद्धान्तीः-यह भी तुमारा कहना अयुक्त है । क्योंकि जो राजा है, सो चोरों को निषेध करने में सर्व प्रकार से समर्थ नहीं है। कैसा ही उग्र-कठोर शासन वाला राजा ' क्यों न होवे और मन वचन काया करके कितना भी चोरी आदिक पाप कर्म को मने कराना चाहे; फिर भी लोक चोरी आदिक पाप कर्म को सर्वथा नहीं छोड़ते । परन्तु ईश्वर को तो तुम सर्व शक्तिमान मानते हो, तो फिर वो सर्व जीवों को पाप करने में प्रवृत्त होते हुओं को क्यों नहीं मने करता ? जेकर मने नहीं करता, तब तो - ईश्वर ही सर्व जीवों से पाप कराता है, यही सिद्ध हुआ। जेकर कहोगे कि पाप में प्रवृत्त होते जीवों को ईश्वर मने करने में समर्थ नहीं है, तो फिर ऊंचे शब्द से ऐसे कभी न कहना कि सब कुछ ईश्वर ने ही करा है, और ईश्वर सर्व
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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