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________________ द्वितीय परिच्छेद बसोला प्रारी प्रमुख स्वभाव से प्रवृत्त होते हैं। तब तो तिन को सदा ही प्रवृत्त होना चाहिये, बीच में कभी ठहरना न चाहिये, परन्तु ऐसे है नहीं। इस पूर्वोक्त हेतु से तो ठहर ठहर कर अपने अपने फल के साधने वाले जो जीव हैं, तिनका अधिष्ठाता ईश्वर ही सिद्ध हो सकता है। तथा दूसरा अनुमान जो परिमंडलादिक, वृत्त, व्यंश, चतुरंश संस्थान वाले ग्राम, नगरादिक हैं; वे सब ज्ञानवान के रचे हुये हैं, जैसे घटादिक पदार्थ । तैसे ही पूर्वोक्त संस्थान संयुक्त पृथिवी, पर्वत प्रमुख हैं। इस अनुमान से भी जगत का कर्ता ईश्वर सिद्ध होता है। सिद्धान्ती:-जिस अनुमान से तुम ने जगत् का कर्ता ईश्वर सिद्ध करा है, सो तुमारा अनुमान प्रयुक्त है । क्योंकि यह तुमारा पूर्वोक्त अनुमान हमारे मत में जैसे आगे सिद्ध है, तैसे ही सिद्ध करता है। इस वास्ते तुमारे अनुमान में सिद्धसाधन दूषण प्राता है । यथा-इस सम्पूर्ण जगत् में जो विचित्रता है, सो सर्व कर्म के फल से है, ऐसे हम मानते हैं। क्योंकि भारतवर्ष में तथा अनेक देशों में, अनेक टापुओं में, हेमवंत प्रादिक अनेक पर्वतों में अनेक प्रकारके जो मनुष्यादि प्राणी वास करते हैं, अरु उनकी अनेक सुख दुःखादिक रूप अनेक तरें की अवस्था बन रही है, तिन सब अवस्थाओं का कारण कर्म ही है, दूसरा कोई . नहीं । अरु देखने में भी कर्म ही कारण हो सकते हैं।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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