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________________ १३४ जैनतत्त्वादर्श पूर्वपक्ष में ईश्वर को कर्त्ता मानने वालों का मत विस्तार से दिखा दिया । अब उत्तर पक्ष में इस की परीक्षा की जाती है। उत्तरपक्षः - हे वादी ! जो तुमारा यह कहना है कि पृथ्वी, पर्वत और वृक्षादिक, बुद्धि वाले कर्त्ता के रचे हुए हैं, सो अयुक्त है। क्योंकि इस तुमारे अनुमान में व्यप्ति का ग्रहण नहीं होता । *सर्वत्र प्रमाण करके व्याप्ति के सिद्ध होने पर ही हेतु अपने साध्य का गमक होता है । इस कहने में सर्व वादियों की सम्मति है । प्रथम तुम यह कहो कि जिस ईश्वर ने इस जगत् को रवा है, वो ईश्वर शरीर वाला है ? वा शरीर से रहित है ? जेकर कहोगे कि शरीर वाला है, तो उस का हमारे सरीखा दृश्य, दिखलाई देने वाला शरीर है, अथवा पिशाच आदिकों की तरे अवश्य- -न दिखलाई देने वाला शरीर है ? जे कर प्रथम पक्ष मानोगे तब तो प्रत्यक्ष ही बाधक है । तिस ईश्वर उक्त अनुमान का खण्डन www * - "साधनं हि सर्वत्र व्यासो प्रमाणेन सिद्धायां साध्यं गगयेत्” [स्या० मं०, श्लो० ६] अथवा उन के अवि. " जहा २ धूम है वहां २ 1 हेतु और साध्य के साहचर्य नियम को नाभाव — नियत सम्बन्ध को व्याप्ति कहते हैं । अग्नि है", यह उस का उदाहरणस्थल है । परन्तु प्रकृत अनुमान में कार्य हेतु की सशरीरकर्तृकन्त्र साध्य के साथ यह उक्त व्याप्ति नहीं बन सकती इसी बात का अब उल्लेख करते है ।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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