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________________ द्वितीय परिच्छेद १३१ शत्रु भूत दुसरे साध्य को साधने वाले अनुमान के अभाव से। नया जेकर कहो कि ईश्वर, पृथ्वी, पर्वत, वृक्षादिकों का कर्ता नहीं है, अशरीरी होने से, मुक आत्मा की तरे । यह तुमारे अनुमान का वैरी अनुमान है, जो कि ईश्वर को जगत् का कर्ता सिद्ध नहीं होने देता । सो यह तुमारा कथन भी ठीक नहीं है; क्योंकि तुम ने तो ईश्वर को शरीर रहित सिद्ध करके जगत् का अकर्ता सिद्ध किया, परन्तु हमने तो ईश्वर शरीर वाला माना है इस कारण से, तुमारा अनुमान *असत्य सम या मप्रतिपक्ष कहते है । जैसे, "हृदो वह्निमान् धूमात्", हृदो वयभाववान् जलात्"-तानाब अग्नि वाला है क्योकि धूम वाला है । तालाब बदि वाला नहीं क्योंकि जल वाला है। यहां पर धूम का जल प्रति पत्नी है । परन्तु प्रकृत मे साध्य के अभाव-अकर्तृकत्त्व को मिद्ध करने वाने कार्यत्त्व हेतु का विराधो कोई दूमग हेतु नहीं है इस लिये यह कार्यत्व हेतु प्रकरणमम भी नहीं है। इस का तात्पर्य यह है कि-शरीर रहित होने से ईश्वर, जगत का रचयिता नहीं हो सकता, मुक्त आन्मा की तरह । इस विरोधी अनुमान के द्वाग कार्यन्त्र हेतुका बाथ होने में वह प्रकरणपम हेत्वाभास से दूषित हो जाता है, यह वाटीकी शंका है । परन्तु यह गका युक्तियुक्त नहीं है क्योकि ईश्वर जगन् का कर्ता नहीं हो सकता-इम-वाक्य मे धर्मी-पक्ष रूप से ग्रहण किये गए ईश्वर को हम अशरीरी-शरीर रहित नहीं मानते, 'अत. वाढी का दिया हुआ 'शरीर रहित' हेतु पक्ष में न रहने से स्वरूपासिद्ध ह । और हमारा कार्यत्व हेतु अनेकान्त, विरोध और असिद्धि प्रभृति दोषो से अलिप्त अर्थान् निर्दोष है।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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