SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 167
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ફરક जैनतत्वादर्श' उत्तरपक्षः-जब आत्मा का व्यामोह दूर होगा तब तो प्रात्मा अवश्य अवस्थान्तर को प्राप्त होगा, जब अवस्था बदलेगी, तब तो अवश्य द्वैतापत्ति हो जावेगी । तथा जब अद्वैत तत्व का उपदेशक पुरुष पर को उपदेश करेगा । तव तो पर को अवश्य मानेगा । फिर भी अद्वैत तत्त्व का पर को निवेदन करना अरु अद्वैत तत्त्व मानना, यह तो ऐसे हुआ कि, जैसे कोई यह कहे कि मेरा पिता कुमार ब्रह्मचारी है। तात्पर्य यह कि जेकर अपने को अरु पर को माना जावे, तव तो द्वैतापत्ति अवश्य होगी। इस कारण से जो अद्वैतवाद का मानना है, सो सर्व प्रकार से युक्ति-विकल है। * पूर्वपक्षः-परमब्रह्म रूप का सिद्ध होना ही सकल amernawwwwwwwww .... - rrrrrr .n rrrrrrrrrrrrrrrowar * इस पूर्व पक्ष का अभिप्राय यह है, कि वेदात सिद्धान्त में एक अद्वितीय ब्रह्म ही वास्तविक सत् पदार्थ माना गया है । उसके अतिरिक्त विश्व में किसी भी पदार्थ की स्वतंत्र सत्ता नहीं । दूसरे शब्दों में कहें तो यह सारा ही विश्व-प्रपंच उसी मे अध्यस्त है या उसी का विवर्त (पर्याय) है । वास्तव में तो अद्वैत ब्रह्म ही परमार्थ सत् और प्रमाण का विषय है । अत जितना भी भेदज्ञान है वह आलम्बनशून्य अथ च कल्पित है । वेदान्त सिद्धान्त में ब्रह्म का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी माना है । अर्थात् केवल सत्ता मात्र को ग्रहण करने वाले निर्विकल्पक प्रत्यक्ष से ब्रह्म के अस्तित्व को प्रमाणित किया है । परन्तु यह प्रत्यक्ष सम्बन्धो विचार युक्तिविधुर होने से जैनों को उपादेय नहीं हैं । इस लिये अनुमान के द्वारा अद्वैत ब्रह्म की सिद्धि का प्रयत्न किया गया है।
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy