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________________ द्वितीय परिच्छेद ११७ अपने पगों करके राणी के पग संकोचे एतावता अंधों में जंघा फँसाइ अर्थात् एक शरीरवत् हो गये । दोनों जने बहुत गाढ आलिंगन करने में तत्पर हुये । और राखीके कक्षा स्थानों विषे हाथों करी स्पर्श करते हुये शङ्करस्वामी बहुत सुख में मग्न हुये। तब राणी, उनकी आलाप चतुराई को देख कर चित्त में विचार करने लगी, कि देह मात्र से तो यह मेरा भर्त्ता हैं, परंतु इस का जीव मेरा भर्त्ता नहीं, ए तो कोई सर्वज्ञ है। ऐसा विचार करके राणी ने अपने नौकरों को चारों दिशा में भेजा, अरु कह दिया कि जो पर्वतों में वा गुफाओं में बारह योजनों के बीच में जितने शरीर जीव रहित होवें सों सव शरीर चिता में रख कर जला देवो । शंकरस्वामी तो विषय में अत्यन्त मूर्छित हो गये । अर्थात् अपने पूर्व चरित्र का उन्हें कोई पता नहीं रहा । तब राणी के नौकरों ने चार शिष्यों के द्वारा सुरक्षित देख कर शंकरस्वामी के शरीर को उठाकर चिता में रख दिया और उस को दाह करने लगे । तब शंकरस्वामी के चारों शिष्य, उस नगर में गये, जहां कि शङ्करस्वामी थे । वहां शङ्करस्वामी को काम लोलुपी देख कर शङ्कर राजा के आगे नाटक करने लगे एतावता शङ्करस्वामी को परोक्तियों. करके प्रतिबोध करने लगे । सो लिखते हैं:यत्सत्यमुख्यशब्दार्थानुकूलं तत्रमसि २ राजन् ! · १. * १ -- जो सत्य और मुख्य शब्दार्थ वृत्ति के अनुकूल हैं, हे राजन् ! वह तृ है, २ |
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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