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________________ जैनतत्त्वादर्श ११० शिष्य आनंद गिरि ने, शंकरदिग्विजय के तीसरे प्रकरण में लिखा है कि- " परमात्मा जगदुपादानकारणमिति”परमात्मा जो है, सोई इस सर्व जगत् का कारण है । कारण भी कैसा ? उपादान रूप है । उपादान कारण उसको कहते हैं कि जो कारण होवे सोई कार्यरूप हो जावे । इस कहने से यह सिद्ध हुआ कि जो कुछ जगत् में है, सो सब कुछ परमात्मा ही श्राप बन गया । तब तो जगत् परमात्मा रूप ही है । फिर तुम सृष्टिकर्त्ता ईश्वर क्यों नहीं मानते ? - G उत्तरपक्षः - हे ब्रह्मोपादानवादी ! तुम अपने कहने को कभी सोच विचार कर भी कहते हो, वा नहीं ? इस तुमारे कहने से तो पूर्ण नास्तिकपना तुमारे मत में सिद्ध होता है । यथा-जब सब जगत् परमात्मा रूप ही है, तब तो न कोई पापी है, न धर्मी है, न कोई ज्ञानी है, न कोई अज्ञानी है, न तो नरक है, न स्वर्ग है, साधु भी नहीं, अरु चोर भी नहीं, सत् शास्त्र भी नहीं, अरु मिथ्या शास्त्र भी नहीं । तथा जैसा गोमांसभक्षी, तैसा ही अन्नभक्षी है; जैसा स्वभार्या से काम भोग सेवन किया तैसा ही माता, बहिन, बेटी से किया जीवित है और जिसमें लीन होते हैं, वह ब्रह्म है, उसी को जानना चाहिये । * समग्र पाठ इस प्रकार है यः सर्वज्ञः स सर्ववित्, यस्य ज्ञानमयं तप इत्यादिशास्त्रप्रसिद्धः परमात्मा जगदुपादानकारणम | [ पृ० १४]
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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