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________________ द्वितीय परिच्छेद १०७ जो है, सो विधायक ही है, निषेधक नहीं, ऐसे वचन कहने वाले को क्यों न उन्मत्त कहना चाहिये ? अव जो आगे अनुमान कहेंगे, तिस करके भी तुमारे पूर्वोक्त अनुमान का पक्ष बाधित है । सो अनुमान ऐसे हैप्रपंच मिथ्या नहीं है, असत् से विलक्षण होने से, जो असत से विलक्षण है, सो ऐसा है अर्थात् मिथ्या नहीं है, यथा आत्मा । तैसा ही यह प्रपंच है, अतः प्रपञ्च मिथ्या नहीं है । तथा प्रतीयमानत्व जो तुमारा हेतु है, सो ब्रह्मरूप आत्मा के साथ व्यभिचारी है, जैसे ब्रह्मात्मा प्रतीयमान तो है, परन्तु मिथ्यारूप नहीं है । जेकर कहोगे कि ब्रह्मात्मा अप्रतीयमान हैं तो वचनगोचर न होगा, जब वचनंगोचर नहीं, तब तो तुमको गूंगे बनना ठीक है, क्योंकि ब्रह्म के बिना अपर तो कुछ है नहीं, अरु जो ब्रह्मात्मा है, सो प्रतीयमान नहीं, तो फिर तुमको हम गूंगे के बिना और क्या कहें ? प्रथम अनुमान में जो तुमने सीप का प्रांत दिया था, सो साध्यविकल है, क्योंकि जो सीप है सो भी प्रपंच के अंतर्गत है, अरु तुम तो प्रपंच को मिथ्यारूप सिद्ध करा चाहते हो, सो यह कभी नहीं हो सकता कि जो साध्य होवे सोइ दृष्टांत में कहा जावे। जब सीप का भी अभी तक सत् असत् पना सिद्ध नहीं, तो उसको दृष्टांत में काहे को लाना ? तथा हम तुमको यह पूछते हैं कि जो प्रथम अनुमान तुमने प्रपंच के मिथ्या साधने को कीना था सो अनुमान इस प्रपंच से भिन्न हैं वा अभिन्न
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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