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________________ द्वितीय परिच्छेद १०३ नहीं है ? प्रथम विकल्प तो कल्पना ही करने योग्य नहीं है, क्यों कि यह सरल है, यह रसाल है, ऐसा शब्द तो प्रत्यक्ष सिद्ध है । अथ दूसरा पक्ष है, तो उस में भी शब्द का निमित्त ज्ञान नहीं है ? अथवा पदार्थ नहीं है ? प्रथम पक्ष तो समीचीन नहीं, क्योंकि सरल, रसाल, ताल, तमाल प्रमुख का ज्ञान तो प्राणी प्राणी के प्रति प्रतीत है । सर्व जीव देखने वाले जानते हैं कि, सरल, रसाल, ताल, तमाल प्रमुख का ज्ञान हमको है । अथ दूसरा पक्ष कहो तो, पदार्थ भावरूप नहीं हैं ? कि प्रभावरूप नहीं है ? जेकर कहोगे कि पदार्थ भावरूप नहीं, अरु प्रतीत होता है, तो तुम को असत्ख्याति माननी पड़ी, परन्तु अद्वैत वादियों के मत में असत्स्याति माननी महा दूपण है । अथ दूसरा पक्ष, कि पदार्थ अभाव रूप नहीं है तो भाव रूप सिद्ध भया, तब तो सतुख्याति माननी पड़ी । तथा जब अद्वैत मत अङ्गीकार किया, रु सतुख्याति मानी, तब तो सतख्याति के मानने से अद्वैत मत की जड़ को कुहाड़े से काट दिया - एतावता श्रद्वैत मत कदापि सिद्ध नहीं होगा । → पूर्वपक्ष:-वस्तु भावरूप तथा अभावरूप ए दोनों ही प्रकार से नहीं । * असत् पदार्थ का सत् रूप से भान होना । + सत् पढार्थ का सत् रूप से भान होना | नोट -- ख्यातिवाद के विशेष विवरण के लिये देखो परि० नं० २ -
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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