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________________ ८८ ८८ जैनतत्त्वादर्श शाद्वायुः । वायोरग्निः । अग्नेगपः। अद्यः पृथिवी । पृथिव्या ओषधयः । ओषधिभ्योऽन्नम् । अन्नाद्रेतः । रेतसः पुरुषः। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः। [तै० उ०, २-१] तथा-*सदेव सौम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम् । [छा० उ०, ६-२-१] + तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति । [छा० उ०, ६-२-३] ’ ना सदासीनो सदासीत्तदानों, नासीद्रनो नो व्योमापरोयत् । किमावरीवः कुहकस्य शर्मपृथ्वी, पृथ्वी से औषधियें, औपधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, और वीर्य से पुरुष उत्पन्न हुआ । सो यह पुरुष अन्नरसमय है। * हे सौम्य । यह दृश्यमान् जगत् उत्पत्ति से प्रथम सत् रूप ही था, वह सत् एक और अद्वितीय अर्थात् सजातीय, विजातीय और स्वगत भेद से शून्य है। + उस-परमात्मा ने यह इच्छा की कि मैं एक से अनेक हो जाऊं । । तब-मूलारम्भ में असत् नहीं था और सत् भी नही था । अन्तरिक्ष नही था और उसके परे का आकाश भी नही था । किसने किस पर आवरण डाला ? कहाँ ? किसके सुख के लिए ?अगाध और गहन जल कहा था ?
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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