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________________ द्वितीय परिच्छेद ७ सदा आनन्द और सुख रूप है । परमेश्वर में वो कौनसा आनन्द नहीं था जो नशा पीने से उसको मिलता है ? इस हेतु से नशा पीने वाला अरु मांसादि अशुद्ध आहार करने दाला जो है सो कुदेव है । और जो सवारी है सो परजीवों को पीड़ा का कारण है, अरु परमेश्वर तो दयालु है, सो पर जीवों को पीड़ा कैसे देवे ? इस हेतु से जो किसी जीव की सवारी करे, सो कुदेव है । और जो कमंडल रखता है, सो शुचि होने के कारण रखता है । परन्तु परमेश्वर तो सदा ही पवित्र है उनको कमंडल से क्या काम है ? यतः स्त्रीसङ्गः काममाचष्टे, द्वेषं चायुधसंग्रहः । व्यामोहं चाक्षसूत्रादि-रशौचं च कमंडलुः || · अर्थः- स्त्री का जो संग है सो कामको कहता है, शस्त्र जो है सो द्वेष को कहता है, जपमाला जो है सो व्यामोह को कहती है, और कमंडलु जो है सो अशुचिपने को कहता है। तथा जो निग्रह करे - जिसके ऊपर क्रोध करे तिसको वध, बन्धन, मारण, नरकपात का दुःख देवे तथा रोगी, शोकी, इष्टवियोगी, निर्धन, हीन, दीन, क्षीण करे - सोभी कुदेव है । और जो अनुग्रह करे जिसके ऊपर तुष्टमान होवे तिसको इन्द्र, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव, महामांडलिक बनावे और मांडलिकादिकों को राज्यादि पदवी का वर - देवे, तथा सुन्दर अप्सरा सदृश स्त्री, पुत्र परिवारादिकों का संयोग "
SR No.010064
Book TitleJain Tattvadarsha Purvardha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAtmanand Jain Sabha
Publication Year1936
Total Pages495
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
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