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________________ धर्मशर्माभ्युदय की दो प्राचीन प्रतियाँ [ लेखक – श्रीयुत पं० नाथूराम प्रेमी ] महाकवि हरिचन्द्र के सुप्रसिद्ध महाकाव्य की रचना का समय अभी तक अनिर्णीत है । न तो उन्होंने स्वयं अपना समय बतलाया है और न उनके बाद के किसी ग्रन्थकर्ता ने ही उनका उल्लेख किया है जिससे कुछ अनुमान हो सके । उन्होंने अपने गुरु और उनके संघ गण-गच्छादि का भी कोई जिक्र नहीं किया । यह बड़े आश्चर्य की बात है कि इतने उच्च कोटि के कवि को चर्चा तक कोई नहीं करता है जिसकी जोड़ का शायद एक भी कवि जैन कवियों मे नहीं है और जिसके विषय मे काव्यमाला - सम्पादक महामहोपाध्याय पं० दुर्गा प्रसाद जी ने लिखा है कि धर्माशर्माभ्युदय के कर्त्ता अपनी कवित्व-प्रौढ़ता के कारण माघादि प्राचीन महाकवियो की कक्षा के हैं । मुद्रित धर्मशर्माभ्युदय के अन्त मे कवि ने अपना परिचय सिर्फ इतना ही दिया है कि वे कायस्थकुल के अलंकारभूत श्रीआद्र देव के पुत्र थे । उनकी माता का नाम रथ्या और भाई का लक्ष्मण था । अपने वंशादि के विषय मे उन्होंने जो विशेषण दिये हैं, उनसे मालूम होता है कि वे किसी बहुत बड़े प्रतिष्ठित राजमान्य कुल के रत्न थे । बस मुद्रित प्रशस्ति से इतना ही परिचय मिलता है। संभव है मुद्रित प्रशस्ति अधूरी हो और दूसरी हस्तलिखित प्रतियों मे वह पूरी मिल जाय, जिससे समयादि का निर्णय हो जाय । पाटण (गुजरात) के संघवी पाड़ा के पुस्तक भाण्डार में धर्मशर्माभ्युदय की जो हस्तलिखित प्रति है वह वि० संवत् १२८७ की लिखी हुई है और इसलिए उससे यह निश्चय हो जाता है कि महा कवि हरिचन्द्र उक्त संवत् से बाद के नही है, पूर्व के ही है । कितने पूर्व के है, यह दूसरे प्रमाण मिलने पर निश्चय किया जा सकेगा। इस ग्रन्थ-प्रतिका नं० ३६ है और इसकी पुप्पिका में लिखा है - "संवत् १२८७ वर्षे हरिचंद्रकविविरचितधर्मशर्माभ्युदयकाव्यपुस्तिका श्रीरत्नाकरसूरि (रे) आदेशेन कीर्तिचंद्रगणिना लिखितमिति भद्रम् ॥” इस प्रति मे १२॥×११ साइज के १९५ पत्र हैं । उक्त संघवी पाड़े के ही भाण्डार मे इस प्रन्थ की १७६ नम्बर की एक प्रति और भी है जिसमे २०x२४ साइज के १४८ पत्र हैं । इस प्रति मे लिखने का समय तो नहीं दिया है; परन्तु प्रति लिया कर वितरण करनेवाले की एक विस्तृत प्रशस्ति दी है, जो यहाँ दे दी जाती है। प्रशास्ति गुर्जरो देशो विख्यातो भुवनत्रये । धर्मन्त्रमभृतां तीर्थेर्धनादयमनवैरपि ॥१॥
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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