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________________ किरण ४] दक्षिण भारत के जैन वीर २५१ 'समर-परशुराम' की उपाधि मिली। उक्त पुराण ही से यह भी पता चलता है कि अन्य कईवीरों पर विजय पाने के कारण उन्हें 'प्रतिपक्षराक्षस' की उपाधि मिली थी। इन उपाधियों के आतरिक्त वे 'भटमारि' और 'सुभटचूड़ामणि' की उपाधियों से भी भूषित किये गये थे। चामुण्डराय केवल वीर और युद्धपरायण ही नहीं थे, उनमें वे सभी गुण थे, जो विशिष्ट और धर्मानुरागी व्यक्तियों में पाये जाते हैं। अपने सद्गुणों के कारण ही उन्हें 'सत्ययुधिष्ठिर', 'गुणरत्नभूषण' और 'कविजनशेखर' की उपाधियाँ मिली थीं। 'राय' भी एक उपाधि ही थी, जो राजा ने उनकी उपकारप्रियता और उदारता से प्रसन्न होकर उन्हें दी थी। चामुण्डराय ने जैनधर्म के लिए क्या किया, यह बताने के लिये ११५९ ई० के एक लेख का उद्धरण देना उचित होगा। उक्त लेख मे लिखा है-“यदि यह पूछा जाय कि शुरूमे जैनमत की उन्नति में सहायता पहुंचानेवालों मे कौन-कौन लोग हैं ? तो इसका उत्तर होगा-केवल चामुण्डराय।" उनके धर्मोन्नति-संबंधी कार्यों का विशद वर्णन न कर हम सिर्फ इतना ही उल्लेख करेंगे कि श्रवणवेल्गोल में 'गोम्मटेश्वर' की विशाल मूर्ति चामुण्डराय की ही कीर्ति है। यह मूर्ति ५७ फीट ऊँची है और एक ही प्रस्तर-खण्ड की बनी है। 'गोम्मटेश्वर' की मूर्ति के समीप ही 'द्वारपालकों की बाई ओर प्राप्त एक लेख से, जो १९८० ई० का है, निम्नलिखित बातें इस मूर्ति के निर्माण के संबंध में मालूम होती हैं महात्मा बाहुबली पुरु के पुत्र थे। उनके बड़े भाई द्वन्द्व-युद्ध मे उनसे हार गए, लेकिन महात्मा वाहुबली पृथ्वी का राज्य उन्हे ही सौंपकर तपस्या करने चले गए और उन्होंने 'कर्म' पर विजय प्राप्त की। पुरुदेव के पुत्र राजा भरत ने पौदनपुर मे महात्मा बाहुबली केवली की ५२५ धनुप ऊँची एक मूर्ति बनवाई। कुछ कालोपरान्त, उस स्थान मे, जहाँ बाहुबली की मूर्ति थी, असंख्य कुक्कुटसर्प (एक प्रकार के पक्षी, जिनका सिर तो सर्प के सिर के समान होता था और शरीर का बाकी भाग कुक्कुट के समान) उत्पन्न हुए। इसीलिए उस मूर्ति का नाम कुक्कुटेश्वर भी पड़ा। कुछ समय बाद यह स्थान साधारण मनुष्यों के लिए अगम्य हो गया। उस मूर्ति मे अलौकिक शक्ति थी। उसके तेजःपूर्ण नखों को जो मनुष्य देख लेता था, वह अपने पूर्वजन्म की बातें जान जाता था। जव चामुण्डराय ने लोगों से इस जिनमत्ति के बारे मे सुना, तो उन्हे उसके देखने की उत्कट अभिलाषा हुई। जब वे वहाँ जाने को तैयार हुए, तो उनके गुरुओं ने उनसे कहा कि वह स्थान बहुत दूर और अगम्य है। इसपर चामुण्डराय ने इस वर्तमान मूर्ति का निर्माण कराया। चामुण्डराय का ही दूसरा नाम 'गोमट' था, इसलिए इस नवनिर्मित मूर्ति का नाम 'गोम्मटेश्वर' पड़ा * इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद है। -के० भुजवली शास्त्री
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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