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________________ गोम्मटीकी सम्पत्तिका गिरकी रक्खा जाना [ लेखक -— श्रीयुत पं० जुगलकिशोर मुख्तार ] जो लोग भगवान्‌का पूजा करके आजीविका करते है — पूजनके उपलक्षमें वेतन लेते अथवा दक्षिणा, चढ़ावा या उपहार ग्रहण करते हैं— उनमें प्राय: धर्मका भाव बहुत ही कम पाया जाता है। यही वजह है कि समय- समयपर उनके द्वारा तीर्थादिकों पर अनेक अत्याचार भी हुआ करते हैं । वे लोग ज़ाहिरमे अपने अंगों को चटका मटका कर बहुत कुछ भक्तिका भाव दिखलाते हैं और यात्रियोंपर उस देव तथा तीर्थके गुणों का ज़रूरतसे अधिक बखान भी किया करते हैं; परन्तु वास्तत्रमे उनके हृदय देवभक्ति तथा तीर्थ भक्तिके भावसे प्रायः शून्य होते हैं । उनका असली देव और तीर्थ टका होता है । वे उसीकी उपासना और प्राप्तिके लिये सब कुछ करते हैं । यदि उनको अवसर मिले तो वे उस देवतीर्थकी सम्पत्तिको भी हड़प जानेमे आनाकानी नहीं करते ! ऐसे लोगोके हृदयके क्षुद्र भावों और दीनताभरी याचनाओंको देखकर चित्तको बहुत ही दुःख होता है और समाजकी धार्मिक रुचिपर दो आँसू बहाये विना नहीं रहा जाता । 1 यह दशा केवल हिन्दू-तीर्थोके पण्डे-पुजारियोंकी ही नहीं, बल्कि जैनियोंके बहुतसे तीर्थोके पण्डे-पुजारियोंकी भी प्रायः ऐसी ही अवस्था देखनेमे आती है | श्रवणबेलगोल सम्बन्धी मेरी तीन महीनेकी यात्रामे मुझे इस विषयका बहुत कुछ अनुभव प्राप्त हुआ है । उस समय तारंगा तीर्थका पुजारी अपने फटे पुराने कपड़ोको दिखलाकर यात्रियोंसे श्रवणबेलगोलमे, जिसे जैनबद्री भी कहते है, छत्तीसघर पुजारियो के हैं। भीख माँगता था । परन्तु यदि वह के मन्दिरोंकी हालतको देखा जाय तो दाँतों तले अंगुली दबानी पड़ती है। जगह-जगह कूड़ाकर्कटका ढेर लगा हुआ है। बहुतसे मन्दिरोंके गर्भ-गृहोंमेसे इतना दुर्गन्धि आती है कि वहाँ ठहरा नहीं जाता ! नगरमे और पर्वतोंपर अधिकांश मन्दिर ऐसे है जिनमे नित्य क्या, महीनों और वर्षोंमें भी प्रतिमाओंका प्रक्षालन नहीं होता । आठ दिन ठहरने पर भी, पुजारियोंकी कृपासे नगरके दो तीन मन्दिर दर्शनांके लिये खुल नहीं सके। इतने पर भी " पूजन कब कराओगे, गोम्मटस्वामीका स्नास पुजारी मैं हूं, दान या इनाम मुझे ही देना, हम आपकी आशा लगाये हुए हैं,” इत्यादि दीन वचन पुजारियोंके मुखसे बराबर सुनने आते थे। इससे पण्डे-पुजारियोंकी धर्मनिष्ठाका बहुत कुछ अनुभव हो सकता है। यह धर्मनिष्ठा आजकलके पण्डे-पुजारियोंकी ही नहीं बल्कि श्राजसे कई शताब्दियों पहले के पण्डे-पुजारियोंकी भी प्रायः ऐसी ही धर्मनिष्ठा पाई जाती है, जिसका अनुभव पाठकोंको सिर्फ इतने परसे ही हो जायगा
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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