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________________ भास्कर : भाग ६ अचिन्त्यमहिमा देवः सोऽभिवन्द्यो हितैपिरणा। शब्दाश्च येन सिद्ध्ययन्ति साधुत्वं प्रतिलम्भिताः ॥१८॥ त्यागी स एव योगीन्द्रो येनाक्षय्यसुखावहः । अर्थिने भव्यसार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ॥१९॥ किसी लेखक आदि की भूल से किसी प्रति में यह श्लोक उक्त क्रम से लिखे गये हैं और उसी पर से इस तरह मुद्रित भी हो गये हैं। किन्तु वास्तव में १७ वां और १९ वा श्लोक एक साथ हो कर अट्ठारहवां उनके बाद में होना चाहिये। क्योंकि १७ वें श्लोक में समन्तभद्र का स्मरण करते हुए उनके देवागमस्तोत्र का उल्लेख किया है और १९ में उनके रतकरण्डनामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है। किन्तु १८ । 'देव' शब्द से प्रसिद्ध वैयाकरण देवनन्दी का स्मरण किया है। आदिपुराण और हरिवंशपुराण' में भी इन्हें इसी संक्षिप्त १ हरिवंशपुराण का यह श्लोक निम्न प्रकार है इन्द्रचन्द्रार्कजैनेन्द्रव्याडिव्याकरणेक्षिणः । देवस्य देवसंघस्य न वन्द्यते गिरः कथम् ? न्यायकुमुदचन्द्र की प्रस्तावना ( पृ० १०० ) मे मैने लिखा था कि इस श्लोक में देवनंदी का स्मरण किया है। और अपने इस विचार को कई युक्तियो से सिद्ध किया था। किन्तु 'अकलङ्क-प्रन्थत्रय' की प्रस्तावना मे पं० महेन्द्रकुमार जी न्यायाचार्य ने मेरे इस मत का निराकरण किया है। आप की मुख्य आपत्ति यह है कि पूज्यपाद जैनेन्द्रव्याकरण के रचयिता है अतः इन्द्र चन्द्र आदि व्याकरणों के साथ उन्हे अपने ही रचित व्याकरण का इक्षिन्-द्रष्टा कहना ठीक नहीं है। किन्तु इस आपत्ति का परिहार यह हो सकता है कि हरिवंशपुराणकार की दृष्टि मे पूज्यपाद इतर व्याकरणों के भी उतने ही विशिष्ट अभ्यासी थे जितने स्वरचित व्याकरण के। अर्थात् जिस तरह स्वरचित ग्रन्थ के प्रत्येक रहस्य से रचयिता अभिज्ञ रहता है उसी तरह वे पर-रचित व्याकरणों के भी प्रत्येक रहस्य से अभिज्ञ थे। श्रवणबेलगोल के शिलाले० नं०५० के एक उल्लेख से भी इस बात का समर्थन होता है। उसमे मेघचन्द्र मुनि का गुणगान करते हुए उन्हे 'सर्वव्याकरणे विपश्चिदधिपः श्रीपूज्यपादः स्वयम्' लिखा है, जो बतलाता है कि पूज्यपाद समस्त व्याकरणो के परगामी थे। यदि इस बात को स्वीकार न किया जाये और इस श्लोक के द्वारा अकलङ्कदेव का स्मरण किया जाना ही ठीक माना जाये, जैसा कि पण्डितजी का मत है, तो इस व्याकरण-शास्त्र के नियमों की विरोध-सम्बन्धी आपत्ति के सामने अनेक ऐतिहासिक आपत्तियां आ खड़ी होती है, जिन्हे दृष्टि से ओझल नही किया जा सकता । तथा उसके विरुद्ध दूसरे मत के समर्थन मे अनेक उपपत्तियां भी मिलती है।
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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