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________________ ૨૨૪ भास्कर [भाग ६ असिद्ध से सिद्ध करने की चेष्टा के समान ही है। हम पहले वतला आये हैं कि भाष्यकार ने 'केत्रि' आदि लिखकर अनेक आचार्यों के मतों का निर्देश किया है। अतः इस प्रकार के थोथे प्रमाणों से कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता। १ पतञ्जलि ने 'अपरः आह' करके जाति का एक लक्षण उद्धृत किया है। . जिसकी विचारधारा जैनसिद्धान्त से मेल खाती है। इस मामूली सी बात से कोठारीजी ने निष्कर्ष निकाला है कि भाष्यकार किसो जैनवैयाकरण से बाद में हुए है। वैयाकरण व्याकरण-विषयक ग्रन्थों में वैयाकरणों के ही मत उद्धृत करने की प्रतिज्ञा तो सम्भवतः नहीं करते है। यदि ऐसा कोई नियम होता कि व्याकरण-विषयक ग्रन्थों में किसी नयायिक, दार्शनिक, सैद्धान्तिक या कवि का कोई मत या कोई विचार उद्धृत नहीं करना चाहिये तो हम कोठारी जी के उक्त निष्कर्ष से किसी तरह सहमत हो भी जाते। किन्तु इस बादरायण-सम्बन्ध से सहमत होने के लिये हमारी जुद्र बुद्धि तैयार नहीं होती। क्योंकि जैन-विचारधारा तो अतिप्राचीन है, उसे भाष्यकार किसी अन्य स्रोत से जान कर लिए सकता था। पूज्यपाद के साथ इस विचारधारा का, पता नहीं, कैसे अविना-भावी सम्बन्ध जोड़ लिया गया है। २ 'वाहनमाहितात्' इस सूत्र पर भाष्यकार ने 'अपर आह' करके वाहनबाह्यादिति वक्तव्यम्' ऐसा लिखा है। जैनेन्द्र में 'बाह्याद्वाहनम्' सूत्र है। इस शञ्च-साम्य से, जो यथाकम भी नहीं है, कोठारी जो निष्कर्ष निकालते है कि 'अपर' पद से जैनेन्द्रकार का उन्लेख किया है। क्यों भी, यदि जैनेन्द्र का सूत्र ही भाष्यकार ने उद्धृत किया है तो उसे उसने परिवर्तित क्यों कर दिया ? क्या इससे यह निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता कि जैनेन्द्रकार ने भाष्य को इस चार्तिक को ही परिवर्तित करके अपना सूत्र बना लिया है, जनेन्द्रकार के सामने कात्यायन को वार्तिक थी, यह बात उनके सर्वार्थसिद्धि-विषयक उन्लेखों से स्पष्ट है। ३ तत्वार्थसूत्र के चतुर्थ अध्याय के 'पीतपद्मशुक्ललेश्याद्वित्रिशेपेषु' इस सूत्र का मायान फरने हुए पृज्यपाद स्वामी ने पक वाक्य इस प्रकार लिखा है-"यथाहुःप्रतायो तपरकरगो मध्यमविलम्वितयोरुपसंख्यानमिति ।" पाणिनि के "तपरस्तत्कालस्य' (१-१.५०) भूत के व्याख्यान में भाष्यकार ने एक वार्तिक इस प्रकार दी है-"यद्य इतायां तप'फग्ग मन्यमविलम्बितयोरुपसंख्यान कालभेठात् ।" आगे इसका व्याख्यान करत हर भाष्यकार लियते है-"दुतायां तपरफरणे मध्यमविलम्बितयोरुपसंख्यानं कायम त्यादि। इसका भी कोठारी जो ने यही निष्कर्ष निकाला है। कोठारी जी समहती भूल को देख कर मेरी उनके विषय में जो धारणा थी, उसे बड़ी ठेस
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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