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________________ किरण ४ जैनविद्रो अर्थात् श्रवणबेलगोल २०३ चामुण्डराय ने शक संवत् ९५१ के लगभग इस भव्य मूर्ति की प्रतिष्ठा कराई जो गोम्मटेश्वर के नाम से प्रसिद्ध हुई। इसके सैकड़ों वर्ष पश्चात् दक्षिण में गोम्मटेश्वर की और विशालकाय मूर्तियां निर्माण हुई। एक कारकल में सन् १४३२ में ४१३ फुट ऊँची और दूसरी वेणूर में सन् १६०४ ईस्वी में ३५ फुट ऊची। श्रवणवेल्गोल के गोम्मटेश्वर के मस्तकाभिषेक के उल्लेख शक संवत् १३२० से लगाकर आधुनिक काल तक के मिलते हैं। विन्ध्यगिरि पर अन्य दर्शनीय स्थान हैं सिद्धरवस्ति, अखण्ड बागिलु, सिद्धरगुण्डु, गुल्ल कायजि बागिल, त्यागद ब्रह्मदेवस्तम्भ, चेन्नएण बस्ति, ओदेगल बस्ति, चौबीस तीर्थङ्कर बस्ति और ब्रह्मदेव मन्दिर। चन्द्रगिरि (चिकवेट्ट) पर्वत की ऊँचाई समुद्रतल से ३,०५२ फुट है। प्राचीनतम लेखों में इसका नाम कटवप्र (संस्कृत) व कल्वप्पु (कन्नड) पाया जाता है। तीर्थगिरि और ऋषिगिरि नाम से भी इस पर्वत की प्रसिद्धि रही है। यहां १४ मन्दिर (बस्ति) है-पार्श्वनाथ, कत्तले, चन्द्रगुप्त, शान्तिनाथ, सुपार्श्वनाथ, चन्द्रप्रभ, चामुण्डराय, शासन, मजिगएण, एरडुकट्ट, सवतिगंधवारण, तेरिन, शान्तीश्वर और इरुवे ब्रह्मदेव। इनमें से प्रथम १३ एक ही घेरे के भीतर है, केवल अन्तिम मन्दिर उससे बाहर हैं। यहां के अन्य दर्शनीय स्थान हैंकूगे ब्रह्मदेव स्तम्भ, महानवमी मण्डप, भरतेश्वर मूर्ति, कश्चिनदोरणे कुंड, लक्किदोषणे कुंड, भद्रवाहु की गुफा और चामुण्डराय की शिला। विन्ध्यगिरि और चन्द्रगिरि के बीच बसे हुए नगर के मन्दिर इस प्रकार हैं-भण्डारि बस्ति, अक्कन बस्ति, सिद्धान्त वस्ति, दानशाले बस्ति, नगर जिनालय, मंगायि बस्ति, और जैनमठ । कहा जाता है कि पूर्वकाल में धवल, जयधवल आदि सिद्धान्तग्रन्थ यहीं रखे जाने के कारण पूर्वोक्त बस्ति का नाम सिद्धान्त बस्ति पड़ा तथा पीछे यहीं से वे ग्रन्थ मूडबिद्री गये। इन मन्दिरों के अतिरिक्त नगर मे दर्शनीय स्थान इस प्रकार है-कल्याणि सरोवर, जक्किकट्टे सरोवर और चेन्नएण कुंड। __ श्रवणवेल्गोल का सब से बड़ा ऐतिहासिक माहात्म्य वहां के शिलालेखों मे है। यहां कोई ५०० शिलालेख चट्टानों, स्तन्मों व मूतियों पर खुदे हुए पाये गये है, जिनमे जैन इतिहास से सम्बन्ध रखनेवाले अनेक राजाओं और आचार्यों का उल्लेख पाया जाता है। इनमें सबसे प्राचीन शिलालेख वह है जिसमें अन्तिम श्रुतकेवली भद्रबाहु की भविष्यवाणी तथा मुनिसंघ के उत्तरापथ से दक्षिणापथ की यात्रा का उल्लेख है। इसो लेख मे जो प्रमाचन्द्राचाय का उल्लेख है उससे मौर्य सम्राट चन्द्रगुप्त का तात्पर्य समझा जाता है जो अनेक साहित्यिक उल्लेखों के अनुसार भद्रबाहु से दीक्षा लेकर जैन मुनि हो गये थे और जिन्होंने यहीं चन्द्रगिरि पर तपस्या करके समाधिमरण किया। इसी कारण इस पर्वत का नाम चन्द्रगिरि पड़ा। इस पर्वत पर भद्रबाहु नाम की गुफा भी है और उसमें चन्द्रगुप्त के चरणचिह्न बतलाये जाते हैं
SR No.010062
Book TitleJain Siddhant Bhaskar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorHiralal Jain, Others
PublisherZZZ Unknown
Publication Year1940
Total Pages143
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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