SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 334
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ९९ ) ( ८३ ) धर्म स्थान यह शांति वैराग और वितरागता का झूला ( हिंडोला - पालना ) है । ( ८४ ) जड के बजाय चैतन्य नेत्र से विश्व को देखो ( ८५ ) स्थल से जल मार्ग और जल मार्ग से आकाश मार्ग में विशेष धोका है इससे भी आत्मिक मार्ग के लिये विशेष सावधान रहने की आवश्यकता है । ( ८६ ) विषय - कषाय की मात्रा का नाश हो तो अधर्म घट जाय और सर्वत्र धर्म का प्रचार होजाय । ( ८७ ) सेवा करने वाला दूसरों की नहीं किन्तु अपनी ही सेवा कर रहा है । ( ८८ ) सेवा यही सच्चा स्वार्थ है शेष सब व्यर्थ हैं ( ८९ ) सीधी व सुन्दर वस्तुओं को भी बांकी देखे वह वक्री । प्रायः पंचम आरके जीव | (९०) बुद्धि की तीक्ष्णता का अभाव यही जडता । ( ९१ ) स्वयं की इच्छा से खाया जाय वही अन्न और ऐसा अन्न ही लाभदायी है उसी प्रकार स्वयं की इच्छा व समझ पूर्वक दिया जाय वह दान है । खाना परोपकार नहीं है उसी प्रकार धर्म ध्यान करना दान देना आदि भी परोपकार नहीं है किन्तु स्वोपकार ही है । (९२) अज्ञानी ने शरीर को अपना मान रखा है ? किन्तु आत्मा को तो यह सर्वथा भूल गया है । ( ९३ ) मनके विचार पूर्ण किये जाते हैं पर मनुयता के गुणों का नाश करते हैं । 1
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy