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________________ आत्मराम विण परमाणुं को विश्वना । नहिं कदि । ताप जो ॥ तल मात्र नहिं आत्मराममां होयजो ॥ ६ ॥ कंचन तजतो निज रंग ने भले सहे ते अग्नि केरो आत्मराम त्यम छोडे नहिं नीज रूपने । कर्म ताप में तप्त भले हो आपजो ॥ ७ ॥ निश्चय वादे एक अने विशुद्ध हुँ । माया विण हुं दर्शन ज्ञाने पुर्ण जो ॥ शुद्ध आत्ममां स्थित करीने आत्मने । क्षय करूं हुं क्रोधादिक संपूर्ण जो ॥ ८ ॥ अनुभवे जे खरं आत्मनुं रूप आ । पामे तेओ आत्म तणु सत रूपजो ॥ अनुभवे ए आसत् आत्मनुं रूपतो । पामेछे आसत् निज स्वरूप जो ॥ ९ ॥ अनुभवुं नहिं आत्मतणा हुं रूप ने । अंश मात्र जो राग द्वेपनो होय जो ॥ नथी कामनो शास्त्र विशारद धर्मनो । राग द्वेपनो स्पर्श मात्र जो होय जो ॥१०॥ देहादि पर द्रव्यो धाता छिन्न भिन्न । के विकारे धाता को अदृश्य जो ॥ विचरता वा स्वेच्छाये को कारणे । पण पाने नहीं आत्मतणो ए स्पर्श जो ॥११॥ सरूप मारुं समजीने आरीतथी । 1
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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