SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 200
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ काव्य विलास चेतन चेतो अब तुम्हें, लहि नरभव अहिसार ॥ १० ॥ ऐसे मति विभ्रम भई, लगी विषय की धाय । कै दिन कै छिन के घड़ी, यह सुख थिर ठहराय ॥११॥ पीतो सुधा स्वभाव की, जी ! तो कहूं सुनाय । तू रीतो क्यों जात है, नरभव बीतो जाय ।.१२ ॥ मिथ्यादृष्टि निकृष्ट अति, लखैन इष्ट अनिष्ट । भ्रष्ट करत है सिष्ट को, शुद्ध दृष्टि दे पिष्ट || १३ | चेतन कर्म उपाधि तज, राग द्वेष को संग | ज्यों प्रगटे परमातमा, शिव सुख होय अभंग ॥ १४ ॥ ब्रह्म कहूं तो मैं नहीं, क्षत्री भी मैं नाहिं । वैश्य शुद्र दोनों नहीं, चिदानंद हूं मांहि ||१५|| जो देखें इन नयन से, सो सब बिएस्यो जाय । उनको जो अपना कहे, सो मूरख शिरराय ॥ १६ ॥ पुद्गल को जो रूप है, उपजे बिएसे सोय । जो अविनाशी आतमा, सो कछु और न होय ॥ १७॥ देख अवस्था गर्भ की, कौन कौन दुःख होहि । बहुर मगन संसार में, सो लानत है तोहि ||१८|| अधो शीश ऊरध चरन, कौन अशुचि आहार । थोड़े दिन की बात यह, भूलि जात संसार ॥ १६ ॥ अस्थि चर्म मल मूत्र में, रात दिनों को वास । देखें दृष्टि घिनावनो, तऊ न होय उदास ||२०||
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy