SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १५ दूसरा भाग २६–कोर्ट मनुष्य विकाश के लिये बिघ्न भूत है वैसे ही सम्प्रदाय धर्म-प्रेम मे विघ्न भूत । २७-~-वर्तमान राज्य और धर्म संगठन का शिर नीचे और पैर ऊँचे है । कल्प और मर्यादा जैसे मामूली विषय के ऊपर विशेष लक्ष देते है । समकित और वात्सल्य भाव तथा व्रतादि के लिये कुछ परवा भी नहीं करते हैं और दूपण को भूषण रूप समझ रहे है। २८-तामसी धर्म जनून सिखाता है, तब सात्विक धर्म गम खाना मिखाता है और जैन धर्म के प्राचार्यों ने भी जनून सिखाना शुरू किया है इसीसे धर्म के झगडे हो रहे है। २९-दरियाई पाती उन्नति के शिखर पर चढ़ने वाला होता है, तब वराल रूप से भस्म होकर बादल रूप देह धारी बन कर मुसलधार बरसता है वैसे पुराने रीतिरिवाज नाश होकर नये जन्म धारण करते है। शिथिलाचारी यतियों के बाद लोकाशाह का जन्म हुआ। अब नये वीर की अत्यन्त आवश्यकता है। ३०- कष्ट देनेवाले को कष्ट देकर खुश होने का यह जड़ समाना है तव पूर्व में क्षमा देकर खुश होने का जमाना था। ३१-कष्ट देने वाले को कष्ट देने से छापने कष्ट मे कमी होती नहीं है, परन्तु सदा दु खो की वृद्धि होती है। ३२-वैर लेने से नुकसान सिर्फ दो मनुष्यो को नहीं होता किन्तु समस्त जगत् को नुकसान होता है। यह समझ आज के जमाने में प्राय असभव सी है। ३३-धर्म मरजियात है। न कि फरजियात । गुरुभक्ति मरजियात नकि फरजियात ।
SR No.010061
Book TitleJain Shiksha Part 03
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages388
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy