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________________ धर्मपत्नी की दृष्टि में श्रीमती प्रशों देवी, धर्मपत्नी कर्मवीर ला० तनसुखरायजी जैन [कुछ मनुष्यो के स्वभाव में इस प्रकार की आदत होती है कि जिन लोगो के साथ उन्हे रहना पडता है उनके प्रति दृढता और कर्कशता का व्यवहार करते है और दूसरो के साथ दिखाने के लिए दयालुता का, इस तरह व्यक्ति की पूर्ण जांच नही हो पाती। परन्तु जो व्यक्ति घर और बाहर एकसा सद्-व्यवहार दिखाते है, दूसरो के साथ-साथ, निज परिवार वालो के प्रति भी करुणा और वात्सल्य का स्रोत बहाने है वे प्रशसनीय है। प्रायः देखा जाता है कि कुछ व्यक्तियो के साथ सीमित समय अच्छी तरह व्यतीत हो जाता है परन्तु अधिक समय रहने से कटुता बढ़ जाती है। लेकिन श्रेष्ठ नर-रत्न वे है जिनके साथ अधिक से अधिक समय रहने पर भी स्नेह की चतुर्गुणी वृद्धि होती है । उनको आत्मीयता के कारण वात्सल्य और सौहार्द परस्पर बढता ही जाता है। लालाजी ऐसे ही सहृदय और दयालु नररल थे। उनके प्रति उनकी श्रीमतीजी ने श्रद्धाजलि अर्पित की है वह इस बात का प्रतीक है कि उनका गृहस्थ जीवन क्तिना सुखी और आनन्दमय था। उनके हृदय मे दया और परोपकार की नदी बहती थी।] पूजनीय प्राणनाथ । अापके चरणो में श्रद्धाजलि अर्पित करती हैं। आपकी परम पवित्र महान् आत्मा को उत्तम गति प्राप्त हो ऐसी श्री जिनेन्द्र भगवान् से मेरी विनम्र प्रार्थना है। उन महान् सज्जन पुरुष की पर-उपकारी भावना का कुछ थोडा सा वर्णन करती हूँ। यू तो उनका जीवन पर-उपकार में बीता कहा तक गिनती गिनाऊ । लेकिन कुछ मोटी-मोटी घटनाएं उनके जीवन मे घटी है वे बूढे, बच्चे और स्त्री इन तीनो की रक्षा करना अपना परम कर्तव्य समझते थे। जो भी सहायता बनती, करते रहते । कभी शब्दो के द्वारा प्रकट नही करते थे। जब बच्चे पढ़-लिखकर अपने काम मे लग जाते तव बच्चे पाकर आभार मानते तो खुश होते और कहते-भगवान् सवकी रक्षा करते है । मैं कौन करने वाला। एक बार की बात है । एक लडका माया । उसकी बहिन की शादी थी । उसे रुपयो की भावश्यकता पड़ी। उसे उन्होने तत्काल रुपये दे दिये लेकिन वापिस लेने का भाव नहीं था। लेने वाला भी स्वाभिमानी था । जब उसके पास रुपये देने को हो गये तो एक चिट्ठी के साथ ४००७० लिफाफे मे बन्द करके घर पर दे गया और कह गया कि ये चिट्ठी लालाजी को ही देना। आकर जव उन्होने खोली तो रुपये देखे तो खुश होकर बोले किसी का काम नहीं भटकता मैने तो मना किया था कि वेटा तुम देने की कोशिश मत करना। एक बार किसी काम के वास्ते रुपयो की जरूरत पडी । ५००० रु० मगवाया। किसी अपने भाई ने आकर अपनी मजबूरी बतलाई कि ५०० रु० चाहिए। अपने मन में क्या सोचते है [४९
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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