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________________ इसकी रचना नवमी शताब्दी में प्राचार्य विद्यानन्द ने की थी। इनके आप्तपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा और अष्टसहनी आदि और भी अनेक ग्रन्य उपलब्ध है। (४) सुखवोधा यह टीका सर्वार्थसिद्धि से कुछ छोटी है । इसमे 'मोक्षमार्गस्य नेतार भेतार कर्मभूभृताम्' इत्यादि मगलपद्य की टीका की गई है । 'सत्सख्या' इत्यादि सूत्र की टीका बिलकुल सक्षिप्त की गई है। विपय को पुष्ट करने के लिये इसमे अनेक ग्रन्थो के पद्य उद्धृत किये गये है। सर्वार्थसिद्धि के अनुकरण पर इसके पाचवें अध्याय में दार्गनिक चर्चा पर्याप्त मात्रा में की गई है। पर पहले अध्याय मे सर्वार्थसिद्धि सरीखी गनिक चर्चा नही है और न उतना विस्तार भी । इसमे यत्र-तत्र सर्वार्थसिद्धि के गन्द और कही-कही उनका भाव भी देखने को मिलता है । मूल को समझने के लिए यह टीका भी उपादेय है । इस टीका के प्रणेता भास्कर नन्दी है। इनका समय तेरहवी शताब्दी है। (५) तत्त्वार्थवृत्ति तत्त्वार्थसूत्र पर १६वी शताब्दी मे श्रुतसागर ने तत्त्वार्थवृत्ति नाम की टीका लिखी। इसका दूसरा नाम श्रुतसागरी वृत्ति भी प्रसिद्ध है । इसमे 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' इत्यादि मगल पद्य पर टीका लिखी गई है। यह टीका पदे-पदे सर्वार्थसिद्धि का अनुगमन करती है और कहीकही राजवार्तिक का भी । इसलिये इसका प्रमाण सर्वार्थसिद्धि से कुछ वडा हो गया है । 'सत्सख्या' इत्यादि सूत्र की व्याख्या सर्वार्थसिद्धि के अनुकरण पर विस्तार से लिखी गई है । अहिंसक-परम्परा श्री विशम्भरनाथ पांडे सम्पादक : 'विश्ववाणी' इलाहाबाद छान्दोग्य उपनिपद् मे इस बात का उल्लेख मिलता है कि देवकीनन्दन कृष्ण को घोर आगिरस ऋपि ने आत्म-यज्ञ की शिक्षा दी। इस यज्ञ की दक्षिणा तपश्चर्या, दान, ऋतुभाव, अहिंसा तथा सत्यवचन थी। ___ जैन ग्रंथकारों का कहना है कि कृष्ण के गुरु तीर्थकर नेमिनाथ थे। प्रश्न उठता है कि क्या यह नेमिनाथ तथा घोर आगिरस दोनो एक ही व्यक्ति के नाम थे ? कुछ भी हो, इससे एक वात निविवाद है कि भारत के मध्य भाग पर वेदो का प्रभाव पड़ने से पूर्व एक प्रकार का अहिंसाधर्म प्रचलित था। स्थानाग मूत्र मे यह वात पाती है कि भरत तया ऐरावत प्रदेशो में प्रथम और अन्तिम को छोडकर गेप २२ तीर्थकर चातुर्मास धर्म का उपदेश इस प्रकार करते थे-'समस्त प्राणघातो का त्याग, सब असत्य का त्याग, सब अदत्ता दान का स्याग, सब वहिर्वा पादानो का त्याग।' इस धर्म रीति मे हमे उस काल मे अहिंसा की स्पष्ट छाप दिखाई देती है। '
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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