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________________ साय प्राकृत का स्थान सरकृत ने लेना प्रारम्भ कर दिया। यह देखकर द्वैपायक के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि समन जैन वाड्मय का परिचय कराने में समर्थ एक ऐमे ग्रन्थ की सस्कृत में रचना क्यो न कर दी जाय, इस विचार के बाद वह स्वय ऐसी सामग्री के सकलन मे लग गया जिसमे उसका मनोरय पूर्ण हो सके । इसके लिए उसने कुछ उपक्रम भी क्यिा पर उसे कुछ कठिनाई प्रतीत होने लगी । अत वह एक तपोवन मे गया, जहा श्रुतकेवली की समता करने में सक्षम (श्रुतकेवलिदेशीय) आचार्य गृद्धपिच्छ विद्वान मुनियो के बीच मे बैठे हुए थे। उस समय यद्यपि वे मौन थे, किन्तु उनकी सौम्य वीतराग मुद्रा से ही दर्शको को मुक्तिमार्ग के उण्देश की एक झलक मिल रही थी । वहाँ का वातावरण विलकुल शान्त और पवित्र था। इससे द्वैपायक बहुत प्रभावित हुआ । अवसर पाते ही उसने आचार्य गृध्रपिच्छ एव अन्य सभी मुनियो को श्रद्धापूर्वक नमन किया और वही एक पोर बैठ गया। कुछ ही कणो के पश्चात उसने विनयपूर्वक यह प्रश्न किया-भगवन ! प्रात्मा का हित क्या है - 'भगवन । किन्तु खल्वात्मने हितम् " कृपया वतलाइये । द्वैपायक के प्रश्न की भाषा और उसके मनोभाव को ध्यान में रखकर उन्होने जो उत्तर दिया, उसीका माकार रूप तत्वार्थसूत्र है। उस समय जो भी वाइमम उपलब्ध था उसका सार लेकर उन्होंने उसे अलकृत किया। जैन परम्परा मे तत्वार्थसूत्र का बहुत बड़ा महत्व है। इसके श्रवण करने मात्र से श्रोता को एक उपवास का फल मिलता है, ऐसी इसकी ख्याति है । प्राय दिगम्बर जैन समाज में दशलक्षण पर्व की पुण्यवेला मे प्रवचन का मुख्य विषय यही रहता है। इसमे प्रथमानुयोग को छोड़कर शेप तीनो अनुयोगो की चर्चा यत्र-तत्र दृष्टिगोचर होती है। यह जैन दर्शन का प्रवेशद्वार है । प्रवेशिका से लेकर आचार्य तक और वालपाठशालामो से लेकर विश्वविद्यालयो तक इसका अध्ययन-अध्यापन होता है । अत यह कहने की आवश्यकता नही कि यह एक अनुपम ग्रन्थ ही नहीं महाग्रन्थ है। इसके आधार पर अनेक उद्भट आचार्यों ने दार्शनिक ग्रन्थो की रचना की है। इसके 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्', इत्यादि मगलसूत्र को लेकर आचार्य विद्यानन्द ने आप्त परीक्षा की रचना की। 'प्रमाणनयरधिगम' इस सूत्र का प्राश्रय लेकर महाकलकदेव ने अपने लघीयस्त्रय ग्रन्थ के प्रमाणप्रवेश और नयप्रवेश-इन दो प्रकरणो की तथा अभिनव धर्मभूपण यति ने न्यायदीपिका की रचना की है। इसे देखकर अन्य आचार्यों ने सस्कृत भाषा मे ग्रन्थ लिखने की प्रेरणा ली। • इसके दसो अध्यायो मे कुल मिलाकर ३५७ सूत्र हैं । प्रारम्भ के चार अध्यायो मे जीवतत्त्व का, पचम मे अजीवतत्त्व का, पप्ठ और सप्तम मे पानपतत्त्व का, अष्टम मे वन्धतत्व का, नवम मे सवर और निर्जरा का तथा अन्तिम मे मोक्ष तत्त्व का निरूपण किया गया है। इसलिए इसका तत्त्वार्थ नाम पड़ा, और सूत्रशली मे लिखे जाने से इसे तत्त्वार्थसूत्र कहते है। मोक्षमार्ग सम्यग्दर्शन, सम्यग्जान और सम्यक्चारित्र का प्रतिपादन करने से इमकी मोक्षशास्त्र सज्ञा भी प्रचलित है। [४३१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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