SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 455
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्रार्थना को स्वीकार करें। आपसे मेरा निवेदन है कि इस विद्रोह को निर्मूल करने का भार आप सौप दे। एक सप्ताह के अन्दर इस विद्रोह को निर्मूल कर में राजकुमार को आपके समक्ष लाकर खड़ा कर दूँगा । अगर यह काम मुझसे नही हो सका तो मै अवश्य अग्निप्रवेश करूँगा । प्रभु ! यह मेरी अचल प्रतिज्ञा है इतना करके ही मैं अपना ऋण चुकाना चाहता हू । मेरी दूसरी माग है कि इस विद्रोह के शान्त होने पर्यन्त श्रापने अन्न-जल का जो परित्याग किया है उस भीपण प्रतिज्ञा को आप तोड दें। यदि मेरे सामने श्राप श्राहार लेंगे तो मेरे शरीर मे वच्च का बल श्रा जायगा । मेरी बात पर श्रापको विश्वास नही हो तो आप अपनी प्रतिज्ञा को जारी रखें । किंतु जब तक आप आहार नही लेंगे तब तक मुझे भी आहार त्याग के लिए आज्ञा दे दें।" बकरस के प्रेम से आहार कर चक्रवर्ती उनके वचनानुसार चलने को तैयार हुए । वकरस अपनी प्रतिज्ञानुसार विद्रोह को निर्मूल कर, मगि और शकरगण दोनो की पश्चात्तापूर्वक मृत्यु के बाद राजकुमार कृष्ण के साथ मान्यखेट को लौट श्राये । प्रतिज्ञानुसार राजकुमार को लाकर चक्रवर्ती के सामने उपस्थित करने पर, चक्रवर्ती विद्रोही पुत्र को मरणदड तुल्य भयकर सजा देंगे ऐसी आशा वकरस को नही रही । कृष्ण की पत्नी चेदि राजकुमारी की प्रार्थना पर भी चक्रवर्ती जव ध्यान न देकर वार-वार राजकुमार को मृत्युदण्ड की सजा ही दुहराते गये, तब बकरस ने अपने प्रासन से उठकर द्रवित हो यो कहा, "प्रभु । राजकुमार को क्षमा प्रदान कीजिये । उनके बदले में अपने प्राणो को देने को तैयार हूँ ।" इस पर चक्रवर्ती ने कहा कि "वकरस भयकर अपराधी के लिए अपने प्राणो को देने के लिए कह रहे है। उनकी उदारता और दया अभिनंदनीय है । पर एक के अपराध के लिए दूसरे को सजा देकर तृप्ति पाने का अधिकार हमे नही है।" तब आचार्य गुणभद्रजी ने यो कहा----चक्रवर्ती के द्वारा न्यायपीठ से दिया हुआ निर्णय धर्मसम्मत है । उस निर्णय को हम भी समर्थन करते हैं । परन्तु प्रजायें राजकुमार को क्षमा प्रदान करने के लिए निवेदन करें तो, प्रजानो की आज्ञा को मानना चक्रवर्ती का धर्म है । क्योकि रक्षा -शिक्षा दोनो मे प्रजाओ का अधिकार ही सर्वोपरि है । चक्रवर्ती प्रजाश्रो की प्राकाक्षाओं को कार्य रूप मे लाने का सावन मात्र है ।" प्रजाओ ने भी गुणभद्रजी के बहुमूल्य श्रभिप्राय का समर्थन किया । वस, फिर क्या, चक्रवर्ती ने भी राजकुमार को क्षमा कर दिया । 0 जैन वाङ्मय के अमर रत्न प्राचार्य कुन्दकुन्द और उनका जीवन-दर्शन डा० प्रद्युम्नकुमार एम. ए. पी. एच. डी. ज्ञानपुर, वाराणसी ईसा के एक शताब्दी पूर्व भारत के दक्षिणी अचल से एक ऐसी महान विभूति का उदय हुआ जिसको यद्यपि जैन वाड्मय के सीमाकाश का एक अत्यन्त जाज्वल्यमान नक्षत्र कहा ४१e
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy