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________________ वृत्तियाँ बढती जा रही है मानो मानवता और सदाचार के नाम पर देश का दिवाला ही निकल गया हो। आश्चर्य की बात तो यह है कि जिस देश मे अपनी आध्यात्मिक ज्ञानगरिमा के प्रकाश में जीवन के उच्चतम आदर्शों पर चलने की हमेशा से विश्व को प्रेरणा दी हो, जिसने तप पूत मात्मानो की तपोभूमि होने के कारण विभिन्न धर्मों की तीर्थस्थली होने के गौरव प्राप्त किया हो, जो अपने आचार-विचार की श्रेष्ठता के कारण "आर्यभूमि" के नाम से विश्व मे विश्रुत हो वही देश आज अपनी चारित्रहीनता एव अनैतिकता के कारण दिनोदिन पतनावस्था की ओर अग्रसर होता जा रहा है। यद्यपि देश के सभी शुभचितक व्यक्ति देश की इस दुरावस्था से चिंतित है पर मर्ज का इलाज किसी की समझ मे नही पा रहा है। यह ठीक है कि लगभग अठारह वर्षों से विदेशी सत्ता से हमने मुक्ति पा ली है तथापि पाश्चात्य संस्कृति और सभ्यता के गुलाम हम अव भी है । हमे पाश्चात्य संस्कृति से इतना व्यामोह हो गया है कि हर बात मे हम उसकी ही नकल करने के आदी बन गये है । हमारा रहन-सहन, खानपान और सभी तौर-तरीके प्राय पाश्चात्य संस्कृति में ढलते जा रहे है । परन्तु आश्चर्य यह है कि वहां की अच्छाइयो की तरफ हमारा ध्यान नही जाता है। पाश्चात्य भारतीय संस्कृति मे मौलिक अन्तर यही है कि प्रथम भोगप्रधान होने से मनुष्य को विलासी व इन्द्रियो का दास बनाती है और दूसरी त्यागप्रधान होने के कारण उसको सयमशील और सदाचारी बनाती है। प्रत आज आवश्यकता इस बात की है कि मनुष्य के विचारो मे पवित्रता का सचार करने के लिए उनके जीवन को आध्यात्मिकता की ओर मोडने के सफल प्रयत्न किये जाये । शिक्षाकेन्द्रो मे अन्य विषयो की शिक्षा के साथ आध्यात्मिक विषयो की शिक्षा का सुप्रबन्ध हो जिससे देश के होनहार बालको और तरुणो का मानसिक धरातल ऊंचा उठे और वे जीवन की शुभ दिशा की ओर झांकने के आदी बने । जैसे जड की बीमारी पत्तो के इलाज से दूर नहीं हो सकती वैसे ही मनुष्य की मात्मिक अथवा वैचारिक कमजोरियो को कानून या ऊपरी व्यवस्थाओ के बल पर दूर नहीं किया जा सकता। ___ अत देश का चारित्रिक-रतर ऊँचा उठाना है अथवा उसके जीवन मे सदाचार और सयम की प्रतिष्ठा करना है तो देश के जीवन मे आध्यात्मिक विचारधारा को प्रवाहित करने वाली साधन सामग्रियो को सुसगठित एव प्रभावशील बनाना चाहिए। आचरण की शुद्धता और विचारो की पवित्रता के बिना मात्र भौतिक उपलब्धियां मनुष्य के जीवन को शाति और आनन्द प्रदान नही कर सकती और न मनुष्य उनका उचित रूप मे उपभोग ही कर सकता है। उसके स्वय के श्रेष्ठ विचार ही उसके जीवन को ऊर्ध्वगामी और सुसस्कृत बना सकते है । xxxx जैन वीर बंकरस विद्याभूषण, सिद्धांताचार्य श्री पं० के० भुजबली शास्त्री, सं० 'गुरुदेव' मूडबिद्री पांच-छह साल तक मान्यखेट के कारागृह में कराहने वाले गग शिवमार पर द्रवीभूत हो, गोविन्द प्रभूतवर्प ने ही उसे फिर तलवनपुर के सिंहासन पर बैठाया और अपने ही हाथो से उस ४१६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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