SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 444
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शिवरमणी के आनन्दकन्द की छवि की टकटकी लगाकर देखसे ही रहे । भूधरदास की नायिका ने भी अपनी सखियो के साथ, श्रद्धा नगरी मे आनन्द रूपी जल से रुचि रूपी केशर घोल कर और रंग हुए नीर को उमग रूपी पिचकारी ने भर कर अपने प्रियतम के ऊपर छोडा । इस भाति उसने अत्यधिक आनन्द का अनुभव किया ।१६ अनन्य.प्रेम प्रेम मे अनन्यता का होना अत्यावश्यक है। प्रेमी को प्रिय के अतिरिक्त कुछ दिखाई ही न दे, तभी वह सच्चा प्रेम है । मा-बाप ने राजुल से दूसरे विवाह का प्रस्ताव किया, क्योकि राजुल की नेमीश्वर के साथ भांवरे नही पडने पाई थी। किन्तु प्रेम भाँवरो की अपेक्षा नहीं करता । राजुल को तो सिवा नेमीश्वर के अन्य का नाम भी रुचिकारी नहीं था। इसी कारण उसने मा-बाप को फटकारते हुए कहा, "हे तात | तुम्हारी जीभ खूब चली है जो अपनी लडकी के लिए भी गालिया निकालते हो। तुम्हे हर बात सम्भल कर कहना चाहिए। सव स्त्रियो को एक-सी न समझो। मेरे लिए तो इस ससार मे केवल नेमि प्रभु ही एक मात्र पति हैं ।"२० महात्मा आनन्दघन अनन्य प्रेम को जिस भाति अध्यात्म पक्ष मे घटा सके, वैसा हिन्दी का अन्य कोई कवि नही कर सका । कबीर मे दाम्पत्य भाव है और आध्यात्मिकता भी, १८. भायो सहज बसन्त खेल सब होरी होरा । उत बुधि दया छिमा बहु ठाढी, इत जिय रतन सजे गुन जोरा ॥१॥ ज्ञान ध्यान डफ ताल बजत है, अनहद शब्द होत घनघोरा । धरम सुराग गुलाल उडत है, समता रग दुहू ने घोरा ॥२॥ परसन उत्तर भरि पिचकारी, छोरत दोतो करि-करि जोरा । इततै कहै नारि तुम काकी, उतते कहै कौन को छोरा ॥३॥ पाठ काठ अनुभव पावक मैं, जल वुझ शान्त भई सब ओरा। धानत शिव आनन्द चन्द छवि, देखहि सज्जन नैन चकोरा ।।४।। -द्यानतराय, धानत पद-सग्रह, कलकत्ता, ८६वा पद, पृ० ३६-३७ १९. सरधा गागर मे रुचि रूपी, केसर घोरि तुरन्त । आनन्द नीर उमग पिचकारी, छोड़ो नीकी मन्त ।। होरी खेलोगी, घर आये चिदानन्द कन्त ॥ - भूधरदास, 'होरी खेलोगी' पद, अध्यात्म पदावली, __ भारतीय ज्ञानपीठ, काशी, पृष्ठ ७५ २० काहे न बात सम्भाल कहाँ तुम जानत हो यह बात भली है। गालिया काढत हो हमको सुनो तात भली तुम जीभ जली है ।। पै सब को तुम तुल्य गिनी तुम जानत ना यह बात रली है । या भव मे पति नेत्र प्रभू वह लाल विनोदी को नाश वली है । -विनोदीलाल, नेमिव्याह, जैन सिद्धान्त भवन पारा की हस्तलिखित प्रति ४.८ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy