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________________ जान सकता और जो अनन्त पर्यायवाले एक द्रव्य को नहीं जानता, वह समरूद द्रव्यो को कैसे एक साथ जान सकता है ?" - प्रसिद्ध विचारक भगवती धारावनाकार शिवार्य' और आवश्यक नियुक्तिका भद्रवाह वड़े स्पष्ट और प्राज्ञ्जल गब्दो मे सर्वज्ञता का प्रबल समर्थन करते हुए कहते है कि 'वीतराग भगवान तीनो कालो, अनन्त पर्यायों से सहित समस्त ज्ञेयो श्रीर समस्त लोको को युगपत् जानते व देखते हैं ।' यागमयुग के बाद जब हम तार्किक युग मे आते है तो हम स्वामी समन्तभद्र, सिद्धमेन अकलक, हरिभद्र, पात्रस्वामी, वीरसेन, विद्यानन्द, प्रभाचन्द्र, हेमचन्द्र प्रभृति जैन तार्किको को भी सर्वज्ञता का प्रबल समर्थन एव उपपादन करते हुए पाते है । इनमे अनेक लेखको ने तो सर्वज्ञता की स्थापना मे महत्वपूर्ण स्वतंत्र ग्रंथ ही लिखे है । उनमे समन्तभद्र (वि० स० दूसरी, तीसरी दाती ) की तमीमासा, सर्वज्ञ विशेष परीक्षा कहा गया है, अकलकदेव की सिद्धिविनिश्चयगत सर्वज्ञसिद्धि विद्यानन्द की प्राप्त परीक्षा, अनन्तकीर्ति की लघु व वृहत्सर्वज्ञ सिद्धियां, वादीमसिंह की स्याद्वाद - सिद्धिगत सर्वज्ञ सिद्धि आदि कितनी ही रचनाएं उल्लेखनीय है । यदि कहा जाय कि सर्वजता पर जैन दार्शनिको ने सबसे अधिक चिन्तन और साहित्य सृजन करके भारतीय दर्शनशास्त्र को समृद्ध बनाया है तो अत्युक्ति न होगी । सर्वज्ञता की स्थापना मे समन्तभद्र ने युक्ति दी है वह बड़े महत्व की है । वे कहते है कि सूक्ष्मादि अतीन्द्रिय पदार्थ भी किसी पुरुष विशेष के प्रत्यक्ष है, क्योकि वे अनुमेय है । जैमे अग्नि । उनकी वह युक्ति यह है सूक्ष्मान्तरितदूरार्था, प्रत्यक्षा कस्यचिद्यथा । अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञ सस्थिति ॥ ३६५ - प्रा० मी० का० ४ समन्तभद्र एक दूसरी युक्ति के द्वारा सर्वज्ञता के रोकने वाले अज्ञानादि दोपो और ज्ञानावरणादि आवरणो का किसी प्रात्मविशेप में प्रभाव सिद्ध करते हुए कहते हैं 'किसी पुरुपविशेष ज्ञान के प्रतिवन्धको का पूर्णतया क्षय हो जाता है, क्योकि उनी अन्यत्र न्यूनाधिकता देवी जाती है । जैसे स्वर्ण मे बाह्य और आभ्यन्तर दोनो प्रकार के मलो का अभाव दृष्टिगोचर होता है ।' प्रति बधको के हट जाने पर ज्ञस्वभाव श्रात्मा के लिए कोई ज्ञेय-अज्ञेय नही रहता । ज्ञेयो का अज्ञान या तो आत्मा मे उन सब ज्ञेयो को जानने की सामर्थ्य न होने से होता है और या ज्ञान के प्रतिबन्धको के रहने से होता है । चुकि आत्मा श है और तप, सयमादि की श्राराधना द्वारा प्रतिबन्धको का प्रभाव पूर्णतया सभव है । ऐसी स्थिति में उस वीतराग महायोगी को, कोई कारण नहीं कि श्रष 1 १. पस्सदि जाणदि ण तहा तिणि वि काले सयज्ज ए सब्वे । तह वा लोगमसेस पस्सदि भयव विगय-मोहो || २ सभिण्ण पासतो लोगमलोग च सव्वग्रो सव्व । त णत्थि ज न पासइ भूय भव्व भविस्स च ॥ ३ अकलक, प्रष्टश० - अण्टस ० - भ० प्रा० गा० ११४१ - आवश्य० नि० गा० १२७
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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