SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आते रहते है। इसलिए न चढाव मे फूलकर अन्धा होने की जरूरत है और न उतार मे घवराकर मैदान छोडने की। उतार के भंवर मे पाने पर उन्होने अपने मित्रो की ही नही, साथियो की ही नही अनजाने लोगो तक की समय-समय पर स्वयं कष्ट झेलकर भी सहायता की है। और यही कारण है कि वे अपने विस्तृत सकिल में एक भरोसे, विश्वास और सहारे की पतवार बनकर अटल और निश्चल खड़े रहे। आज उनके चारो ओर पुण्य कर्म के उदय से सफलता खेल रही है। यह सब उनकी कुशाग्रबुद्धि और परम पुरुषार्थ का चमत्कार है। और चमत्कार की एक बहुत ही मर्मस्पर्शी कहानी है। इस दुखभरी दुनिया मे जब उन्होने अाँखे खोली तो उनके चारो ओर सुख ही सुख था। धनी मां-बाप की गोद मे वे जनमे, खेले और पले-पुसे, वढे । और पढ़-लिखकर गवर्नमेंट सर्विस मे चले गए। परिवार परिचय ___ सन् १८४० ई० के लगभग जीद राज्यान्तर्गत होट ग्राम में एक समृद्धशाली जनपरिवार निवास करता था। उसी परिवार के एक दूरदर्शी एव उच्च इच्छामो से प्रोत प्रोत नवयुवक ने अपनी महत्त्वाकाक्षानो को पूरा करने के उद्देश्य से रोहतक मे पाकर अपना कारोवार प्रारम किया। इन्ही के वश मे श्रीयुत ला० जज्जूमलजी का जन्म हुआ। महत्वाकाक्षा और धार्मिक वृत्ति इस परिवार का पैतृक गुण रहा है । अत श्रीयुत लाला जज्जूमलजी के सुयोग्य पुत्र ला. गणेशीलालजी ने रोहतक मे अपनी महत्वाकाक्षानो को विशेप रूप से अवरुद्ध होते देखा तो वे रोहतक से मुलतान चले गये और वहाँ अपने पैतृक व्यवसाय, लेन-देन और सर्राफ का काम प्रारम्भ किया। आपने अपने अध्यवसाय और व्यापार-कुशलता से इतना धन सग्रह किया कि मुलतान में बहुत बडी सम्पत्ति खरीद कर वहां के उच्चकोटि के समृद्धशालियो में आपकी गणना होने लगी। परन्तु समय की गति और लक्ष्मी के चचल स्वभाव के कारण मिल्स के कार्य मे आकस्मिक असह्य हानि होने के कारण अपनी सम्पूर्ण सचित सम्पत्ति खो बैठे। परन्तु सौभाग्य से चार पुत्र-रत्न प्राप्त हो चुके थे जिनमें होनहार पुत्र ला० जौहरीमलजी दूरदर्शी और व्यापारकुशल व्यक्ति थे जिनका व्यापारिक सम्बन्ध अन्तर्राष्ट्रीय था। आप अपने बच्चो को व्यापारकुशल बनाने का भरसक यल करते थे। जहां बच्चो की शिक्षा की पोर विशेष ध्यान दिया वहाँ व्यापार की ओर बचपन से ही उनका रुझान पैदा करने के लिए उन्हे व्यापार की ओर माकर्षित करते रहते थे। ला. जौहरीमलजी को पांच पुत्र-रत्न प्राप्त हुए जिनके नाम क्रमशः सर्वत्री ना. नानकचदजी, ला. गणपतरायजी, ला० तनसुखरायजी हमारे (चरित्रनायक), स्व० दौलतरामजी तथा राजारामजी है। अपने व्यापारिक कार्यों मे आकस्मिक हानि के कारण श्री जौहरीमलजी ने सन् १९१३ ई० मे मुलतान छोड़ दिया और भटिण्डा आकर बस गये । २०]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy