SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 415
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ प्राचार्यों ने आत्मा और कर्मों के सम्बन्ध का वैज्ञानिक विश्लेपण मनोविज्ञान के धरातल पर किया है। वे जिस नतीजे पर पहुंचे उसी आधार पर कर्मों के पाठ भेद माने है-(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय, सातावेदनीय, प्रमातावेदनीय, (४) मोनीय, (५) बायु कर्म, (६) नामकर्म, (७) गोत्रकर्म, (८) अन्तराय कर्म। इन पाठो कर्मों के पृथक-पृथक कार्य है । ज्ञानावरण आत्मा के ज्ञान गुण को प्रक्ट नहीं होने देता । ज्ञान का आवरण जितना हटेगा उतना ही ज्ञान प्रकट होगा । सम्पूर्ण आवरण हटने पर पूर्ण ज्ञान-केवल ज्ञान की प्राप्ति होती है। प्रात्मा का ज्ञान अभिन्न गुण है। दर्शनावरण आत्मा के दर्शन गुण को ढांकता है। दर्शनावरण जितने प्रशो मे हटता है उतना ही दर्शनगुण प्रकट होता है। आत्मा की अनन्त दर्शन शक्ति है। वेदनीय कर्म के दो भेद हैं- सातावेदनीय और असातावेदनीय । सातावेदनीय सुख देता है और असातावेदनीय दुख देता है । मोहनीय कर्म राग, द्वेप, क्रोध, मोह, लोभ आदि पैदा करता है। आयु कर्म देही आत्मा को निश्चित समय तक जीवित रखता है । नामकर्म शरीर की पूर्णतया रचना करने में स्वाधीन है। गोत्रकर्म प्राणी को उच्च कुल या नीच कुन मे जन्म देता है। अतः गोत्रकर्म के दो भेद है-उच्च गोत्र तथा नीच गोत्र । गोत्र का कार्य जन्म से सम्बद्ध है। जन्म उच्च कुल या नीच कुल मे लेने के बाद प्राणी अच्छे या बुरे कर्म करने के लिए स्वतन्त्र है । कर्म के क्षेत्र मे सच्चा जनतन्त्र है। अच्छा कर्म करने वाला अच्छा और बुरा कर्म करने वाला बुरा । उच्चता और नीचता, कुलीनता और अकुलीनता कमों पर आधारित है। चार वों की व्यवस्था जन्म और कर्म के एक से सयोग होने पर श्रेष्ठ मानी जाती रही है । अन्तराय कर्म अच्छे-बुरे कर्मों मे विघ्न डालता है। ___ कर्मवाद के सिद्धान्त में उपादान कारण (मुख्य कारण) और निमित्त कारण (गौण या सहायक कारण) दोनो का ध्यान रखना पड़ता है। जिस कर्म का उदय है वह उपादान कारण तथा अन्य सहयोगी निमित्त कारण कहा जावेगा। उपादान कारण मुख्य गक्ति रूप है। निमित्त कारण तो ससार मै भरे पड़े है । प्रात्मा की दो शक्ति है--स्वाभाविक और वैमाविक । स्वाभाविक शक्ति आत्मा के गुण या स्वभाव रूप परिणमन कराती है। स्वभाव रूप परिणमन ही धर्म है । विभावरूप परिणमन करला वभाविक शक्ति का काम है। पारमा अन्य द्रव्यों के समान अपने परिणमन मै स्वतन्त्र है । आत्मा अपने गुणों को जितने अशो में प्रकट करता जाता है वह उतना ही स्वाभाविक शक्ति के निकट पहुंचता जाता है। स्वाभाविक शक्ति के पूर्ण प्रकट होने पर मुक्ति होती है-प्रात्मा कर्म सयोग से मुक्त होकर मुक्त जीव बनता है। मोह कर्म कर्मों का राजा है। कोष, मान, माया लोम उसी के है । इनसे ही आत्मा और कर्म का व सायोगिक होता है। यह वध चार प्रकार का होता है प्रकृति, प्रदेश, स्थिति और अनुभाग। प्रकृति वध कर्म के नामरूप होता है। प्रदेशावंध में प्रात्मा के प्रदेशो-जगो के साथ कर्म का वध और कर्मपरमाणुओ की मात्रा का वध होता है। स्थितिवष समय निर्धारित करता है और अनुभागवध फलदान शक्ति प्रदान करता है। क्रोध, मान, माया और लोन पाये है। इनकी तरनमता के ऊपर वध निर्मर है । इन पूर्वोक्त क्मों से मुक्त होने के लिए प्रयत्न करना ही [ ३७
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy