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________________ 1 मानता है । यह सम्बन्ध सयोग सम्बन्ध है । सयोग सम्बन्ध छूट जाता है किन्तु तादात्म्य सम्बन्ध नही छूटता । वह यह मानने को तैयार नही कि किसी के कारण श्रात्मा कर्मवन्ध से मुक्त होने पर भी जन्म धारण कर सकता है। न वह यह मानने को तैयार है कि आत्मा किसी शक्ति का अग है । कर्मबंध से वघा हुआ आत्मा जन्म-मरण के दुःख सहता है । मसार मे प्रत्येक प्राणी की आत्मा स्वतंत्र है - पृथक्-पृथक् है । प्रत्येक आत्मा की शक्ति अनत है। शक्ति दृष्टि से आत्माओ मे कोई अंतर नहीं है। इसी को विशुद्ध आत्मदृष्टि कहते है | अत जैनदर्शन ने प्राणी दो प्रकार के माने हैं- ससारी और मुक्त । ससारी जन्म-मरण के दुख तब तक उठाते है जब तक कि वे कर्मवध से छूट नही जाते और मुक्त वे हैं जो जन्म-मरण के दुख से सदा को दूर हो जाते है। मुक्त पुन कभी भी इस ससार मे जन्म नही लेते । में खाता हूँ, मैं अनुभव करता हूँ, मैं पढा लिखा हू इत्यादि वाक्यो मे, "मैं" शब्द शरीर में रहने वाली एक अदृश्य शक्ति का संकेत करता है, उसे ही जैनदर्शन ने आत्मा माना है । वह धनादि से कर्मबद्ध है— ससारी है अतएव जन्म-मरण करता है और नये-नये शरीर धारण करता है जव तक कि मुक्त नही हो जाता । गीता में कहा है वासासि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह, नाति नरोऽपराणि । तथा शरीराणि विहाय जीर्णा - न्यन्यानि संयाति नवानि देही || "जिस प्रकार मनुष्य पुराने जीर्ण-शीर्णं वस्त्रो को त्याग कर नये दूसरे वस्त्रो कोपहिनता है - धारण करता है उसी प्रकार आत्मादेही- संसारी जीणं शरीरो को छोडकर अन्य शरीर धारण करता है ।" गीता ने भी आत्मा को अनादि और जन्म-मरण धारण करने वाला माना है । जैनदर्शन प्रत्येक ससारी आत्मा को अपना हित और ग्रहित करने वाला मानता है । प्रत्येक ससारी विवेक से अच्छे से अच्छा - उन्नत से उन्नत - श्रेष्ठ से- श्रेष्ठ वन सकता है और अविवेक से बुरे से बुरा, हीन-से-हीन और नीच-से-नीच वन सकता है । जो अच्छा कार्य करता है वह उच्च है और जो बुरा कार्य करता है वह नीच हैं । अत यह स्पष्ट है कि ससार और धर्म-दर्शन के क्षेत्र मे सुकम को ही महत्व दिया जाता है। सुकर्मों से ही मुक्ति मिलती है । कर्मों का फल सबको भोगना पड़ता है यह सर्वमान्य सिद्धात है । ससारी प्राणी को कर्मो का फल स्वत कर्मों के द्वारा मिलता है । क्रर्मोदय मे कोई अन्य कारण नही है । Andying "भावना द्वात्रिंशत्का" मे कहा हैपुराकृत कर्मयदात्मना स्वय फल तदीय लभते शुभाशुभम् । परेण दत्त यदि लभ्यते स्फुट, स्वयं कृत कर्म निरर्थकं तदा || [ ३७७
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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