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________________ प्रथम सस्करण प्रकाशित हुआ, जो व्याकरण, शब्द-रचना, गब्द-कोप आदि से भलीभांति अलकृत था । एक ही प्रति पर आधारित होने के कारण ग्रन्थ मे अशुद्धियो का रह जाना स्वाभाविक ही था । परन्तु परिश्रम बहुत अधिक किया गया था। अपभ्रश का सर्वप्रथम प्रकाशित होने वाला यही साहित्यिक ग्रन्थ था । इसके तीन वर्षों के पीछे सन् १९२१ ई० मे डा. जेकोवी ने मा० हरिभद्रसूरि कृत "नेमिनाथचरित" के अन्तर्गत "सनत्कुमारचरित" का सुसम्पादित सस्करण प्रकाशित किया । वाद में "भविष्यदत्तकथा" गायकवाड़ मोरियन्ट सोरिज, वड़ोदा से १९२३ ई० मे सी०डी० दलाल और पी० डी० गुणे के सम्पादकत्व मे प्रकाशित हुई। उसके बाद अनेक अपभ्रंश ग्रन्थो का पता लग गया । भारतीय विद्वान् जिन्हे प्राकृत भाषा का समझते रहे वे अपभ्र के ग्रन्थ निकले। और तव से कई भारतीय विद्वानो ने अपभ्र श पर बहुत कार्य किया। परिणामस्वरूप लगभग पचास ग्रन्थ प्रकाशित हो चुके हैं। परन्तु अभी तक लगभग तीन सौ ग्रन्थ अप्रकाशित पडे हुए है। और कई महत्वपूर्ण ग्रन्थ अज्ञात तथा अनुपलब्ध है । वस्तुत मध्ययुगीन भारतीय आर्यभापा और साहित्य के प्रतिष्ठापक और पुरस्कर्ता के रूप मे पिगेल और डा० हर्मन जेकोबी का नाम सदा स्मरणीय रहेगा । अपभ्रश के जिस अजान, प्रभात और उपेक्षित क्षेत्र का उन्होने उद्घाटन किया वह यथार्थ मे चिर अविस्मरणीय रहेगा। और मध्ययुगीन भारतीय साहित्य के इतिहास मे उनका नाम स्वर्णाक्षरो से अकित रहेगा। जैन दर्शन में सत्य की मीमांसा मुनिश्री नथमलजी महाराज सत्य क्या है ? इस प्रश्न पर मनुष्य अनादि काल से चिन्तन करता आ रहा है। उसने सत्य का साक्षात् करने का यत्न किया है और वह उसमे सफल भी हुआ है। चिर अतीत में अनेक मनुष्यो ने अनेक प्रयल किए है, इसलिए सत्य शोध की अनेक धाराएँ बन गयी है। उनमे एक धारा है जैनदर्शन । उसके अनुसार जो सत् है, वही सत्य-जो है वही सत्य है, जो नहीं है वह सत्य नहीं है । यह अस्तित्व-मत्य, वस्तु-सत्य, स्वरूप-सत्य या शेय-सत्य है । जिस वस्तु का जो सहज शुद्ध रूप है, वह सत्य है । परमाणु, परमाणु रूप में सत्य है । आत्मा, आत्मा रूप मे सत्य है। धर्म, अधर्म, आकाश भी अपने रूप मे सत्य है । "एक वर्ण, गन्ध, रस पौर स्पर्ण वाला अविभाज्य पुद्गल"-यह परमाणु का सहज रूप-सत्य है। बहुत सारे परमाणु मिलते है, स्कन्ध वन जाता है, इसलिए परमाणु पूर्ण-सत्य (कालिक-सत्य) नहीं है । परमाणु-दशा मे परमाणु सत्य है। भूत-भविण्यत् कालीन स्कन्ध की दशा मे उसका विभक्त रूप सत्य नहीं है। आत्मा शरीर-दशा मे अर्ध सत्य है । शरीर, वाणी, मन और श्वास उसका स्वरूप नही है । आत्मा का स्वरूप है-अनन्त जान, अनन्त प्रानन्द, अनन्त वीर्य (शक्ति) अल्प। सरूप (सशरीर) पात्मा वर्तमान पर्याय की अपेक्षा सत्य है (अर्ध-सत्य है) अरूप (मशरीर, शरीर मुक्त) प्रात्मा पूर्ण सत्य (परम सत्य या कालिक सत्य) है । धर्म, अधर्म और आकाश (इन तीन तत्वो का कालिक रूपान्तर नहीं होता। ये सदा अपने सहज रूप मे ही रहते है- इसलिए) पूर्ण सत्य है। ३६८ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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