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________________ डा० हर्मन जैकोबी भी एक जर्मन विद्वान् थे। पिछले की भांति भारतीय विद्या के विशेष प्रेमी तथा अध्ययन अध्यापन में रत रहते थे । जर्मन की वॉन युनिवर्सिटी मे डा० जेकोबी भारतीय विद्या के प्राध्यापक थे । प्रो० पिशेल ने प्राकृतो के अध्ययन-अध्यापन की जिस नीव को प्रस्थापित किया था डा० जेकोबी ने उसी परम्परा को अग्रसर किया। मुख्य रूप से प्राध्यापक जेकोवी ने जैनागमो का गम्भीर अध्ययन किया। सूत्र ग्रन्थो का अध्ययन और सगोधन तथा सम्पादन ही उनका प्रारम्भिक उद्देश्य था । परन्तु धीरे-धीरे जैन साहित्य मे उनकी रुचि विशेष रूप से प्राकृष्ट होती गई। उन्होने सबसे पहले " उत्तराध्ययन सूत्र " का अध्ययन किया। उस पर उन्होने एक टीका भी लिखी । टीकाओ मे अनेक कथाओ का उल्लेख देख कर उन्होने कथाओ का एक सग्रह तैयार किया, जो पाठ्यपुस्तक के रूप मे (महाराष्ट्री से चुनी हुई कहानियाँ) त्सूर प्राखफ्यूग इन डास स्टूडियम डेस प्राकृत ग्रामीटीक टेक्स्ट वोएरट खुस प्रकाशित हुआ । सन् १८८६ ई० मे लिपजिक नाम के नगर से "श्रीसगेवल्ते एर्सेल गन इन महाराष्ट्री" नाम से वह सग्रह प्रकाशित हुआ । इसके इन्ट्रोडक्शन मे महाराष्ट्री प्राकृत के सम्वन्ध मे विशद विवेचन किया गया है, जिसका अग्रेजी अनुवाद डा० ए० एम० घाटगे ने किया है और जो "द जैन एन्टिक्वेरी" के ठाक मे प्रकाशित हो चुका है । अपने इस प्राथमिक वक्तव्य मे प्रो० जेकोवी ने वैदिक भाषाओ से लेकर आधुनिक भारतीय श्रार्यभाषाओ तक के विकास को जिस घारा का ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन किया था और जिस बात को पिशेल महोदय पहले ही अपने "प्राकृतो के व्याकरण" मे लिख चुके थे उसी आधार पर उन्होने अपभ्रंग के बहुविध रूपो की तथा वोलियो की कल्पना की । उन्होने अपने विचारो को स्पष्ट करते हुए कहा कि भारतीय भाषाएँ तीन अवस्थाओ को पार कर चुकी है । वे तीन अवस्थाएं है - संस्कृत (वैदिक, इपिक और क्लासिकल), मध्यभारतीय या प्राकृत ( पाली, प्राकृत महाराष्ट्री और अपभ्रश) तथा आधुनिक भारतीय या भापा । उत्तर बौद्धो की गाथा वोलियो का विचार करते हुए वे कहते हैं कि जिस प्रकार उच्च जर्मन के लोग अपनी प्रवृत्ति के अनुसार निम्न जर्मन की भाषा मे वोलते और सोचते हैं उसी प्रकार गाथाओ की प्राकृत भी संस्कृत के अनुरूप लिखी गई, जिससे उस पर सस्कृत का प्रभाव दिखाई पडता है। वास्तव मे महाराष्ट्री अपने युग की साहित्यिक भाषा रही है। पाली, प्राकृत और अपना ध्वनि, वाक्य रचना एव बनावट मे एक-दूसरे से भिन्न है । प्राकृत अलग है और अपभ्रश अलग । प्राकृत से प्रपत्र श मै जटिलता और रूपो की कमी है। महाराष्ट्री प्राकृत का भी अधिकतर प्रयोग जैन साहित्य मे हुआ है। इस प्रकार कई महत्वपूर्ण वातो की चर्चा उन्होने इस ग्रन्थ की भूमिका मे की है। डा० जेकोबी ने प्राकृत वाड्मय का विशेष रूप से अनुशीलन किया । श्रतएव आचारांग - सूत्र, उत्तराध्ययनसूत्र, कल्पसूत्र, कालकाचार्यकथानक, पउमचरिय और समराङच्च हा आदि प्राकृत-ग्रन्थो के उत्तम रीति से सम्पादित तथा सशोधित सस्करण प्रकाशित किए। " श्रायाराग पुत्त" का प्रथम संस्करण हर्मन जेकोवी ने लन्दन से १८८२ ई० मे प्रकाशित कराया था । “कालकाचार्यकथानकम्” लायमन द्वारा प्रकाशित "त्साईदुग डेर मोर्गेन लैण्डिशन गैजेल गापट " मे सर्वप्रथम प्रकाशित हुया था । वस्तुत सम्पादन और प्रकाशन की दृष्टि से इनका विशेष महत्व है । परन्तु प्राकृतो का महत्व और स्वरूप निर्धारण में जो निष्पक्ष और सूक्ष्म दृष्टि रिचर्ड पिशेल ३६६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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