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________________ प्रधान रहने के कारण भारतवर्ष के बहुत से ख्याति प्राप्त अग्रवाल भाइयो से परिचय बढ़ा। सन् ३८ मे मारवाडी सम्मेलन का अधिवेशन दिल्ली में हुआ जिसके अध्यक्ष राजा सेठ रामदेवजी पोदार थे। मैने भी उसमे कुछ भाग लिया और उसकी कार्यकारणी समिति के सदस्यो को अपने घर बुलाने का सौभाग्य प्राप्त हुमा । उसमे कलकत्ता, बम्बई, कानपुर आदि के सभी मारवाडी उद्योगपति उपस्थित थे। उनसे परिचय बढा । सन् ४० मे दूध-धी-मक्खन मिलावट निपेष कान्फ्रेंस दिल्ली में की, उसके अध्यक्ष (१) बम्बई के प्रसिद्ध उद्योगपति सर सेठ शान्तिदास प्रासकरणजी थे। मेरी इन वृत्तियो से बहुत प्रसन्न हुए और जब तक वह जीवित रहे उनकी विशेष कृपा मुझ पर बनी रही। बम्बई में उनके पास ही ठहरा करता था। (२) सर सेठ शान्तिदास भासकरण बम्बई वालो के सम्पर्क में बहुत रहा था। उनसे मालूम हुआ कि आबू पहाड पर योगीराज शान्तिविजयजी महाराज रहते है, उनके दर्शनो से मनुष्य को वढी शान्ति प्राप्त होती है । मैं योगीराज महाराज के दर्शनो के लिए ३-४ बार आबू गया और आबू मदिर के टैक्स के आन्दोलन के लिए भी उन्ही का सकेत था। मान्दोलन को जोरो से चलाने और सफल बनाने के कारण वह मुझ पर बहुत प्रसन्न हुए और पाखीर तक शुभ कामनाए भेजते रहे। (३) सन् ४१ से ४३ तक राजनैतिक क्षेत्र में कार्य किया। सन् ४६ मे दसवा मानव-धर्म सम्मेलन का अधिवेशन दिल्ली में किया जिसकी अध्यक्षा श्रीमती रुक्मणीदेवी अरुणेल थी उनके साथ रहकर कुछ समय कार्य किया जिससे वह बहुत प्रभावित हुई । सन् ४७ मे भारत स्वतत्र होने के बाद भारतवर्ष का विधान बना जिसमे कि मनुष्य मात्र को मदिरो मे जाने का समान अधिकार था। हरिजनो को मदिरो में प्रवेश करने का प्रान्दोलन जोरो पर चला । मैने भी हरिजनो को जैन मदिरो मे प्रवेश करने के लिए अपने भाइयो से अपील की परन्तु रूढिवादी भाइयो ने इसका विरोध किया। उन्ही दिनो मुनि महाराज आचार्य नेमिसागरजी सन् ४६ मे दिल्ली पधारे। मुनि महाराज ने मुझे बुलाया। एकान्त मे उनसे २ घन्टे तक हरिजन मदिर प्रवेश पर वार्तालाप हुआ। वह मेरी वातो से प्रभावित हुए। उन्होने कहा कि तुम ठीक कहते हो। ये ही सारी बातें परम पूज्य आचार्य शान्तिसागर महाराज को बताने की है। उन्होने तुरत एक चिट्ठी परम पूज्य शान्तिसागर महाराज के नाम लिखवाई और मुझे शान्तिसागर महाराज के पास जाने का आदेश हुआ। उन दिनो मुनि महाराज शान्तिसागरजी नासिक के पास में विराजमान थे। मैं वहा पहुंचा। पूज्य नैमिसागरजी वहाँ थे। वह मुझ को प्राचार्य शान्तिसागर महाराज के पास ले गए। उनसे भेट हुई, उन्होने बहुत आश्चर्य से कहा कि मैं तो समझता था कि भाप लोग परिषद वाले धर्म की जड़ो में कुलाहबा चला रहे है परन्तु पापके विचार तो बहुत सुन्दर विचार है। मै वहा एक-दो रोज के लिए गया था परन्तु उन्होने मुझे एक सप्ताह तक नही पाने दिया। यह उनकी विशेष कृपा थी। जब दिल्ली आया पूज्य नेमिसागर जी महाराज को वहा के सब हाल सुनाए । बहुत प्रसन्न हुए और कहा तुम भी पाहार लगाया करो। मेरा सौभाग्य है कि चार बार मुनि नेमिसागर महाराज का आहार मेरे गरीबखाने पर हुमा और प्रतिम समय तक नमिसागर महाराज की कृपादृष्टि मुझ पर रही। * * * *
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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