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________________ विभिन्न सम्प्रदायों में एक सूत्रता प्रबुद्ध विचारक श्री सौभाग्यमल जैन, एडवोकेट शुजालपुर म०प्र० "माननीय श्री सौभाग्यमलजी प्रसिद्ध देशभक्त, कुशल राजनीतिज, प्रबुद्ध विचारक, और उच्चकोटि के लेखक है। मध्यभारत विधान सभा के पाप अध्यक्ष रह चुके हैं। आपके हृदय मे इस बात से विशेष ठेस है कि जिस अनेकान्त शासन से विश्व के समस्त कार्य सचालित होते हैं जो अगत के विरोध को शान्त करता है। अपने गुणो के कारण भुवन का एकमात्र गुरु है। उसी शासन के मानने वाले सम्प्रदायवाद से सत्रस्त है। आज विश्व को अहिंसा की बडी आवश्यकता है । मै अपने मन में इस विश्वास को सजोए हुए हूँ कि समाज में कोई ऐमा महाभाग उत्पन्न हो, जो जनधर्म को इनकी परम्पराओ को एक सूत्र मे आवन कर सके जिससे समाज सगठित होकर शक्तिशाली रूप में अहिंसा का प्रचार कर सके। देश मे अहिंसात्मक विचारआचार की प्रतिष्ठा हो और देश पुन एक बार 'जिनो और जीने दो' का मन्त्र उद्घोष करते हुए आचार में उतार सके।" एक प्रसिद्ध जैनाचार्य ने कहा है कि : जेणविणा विलोगस्स, ववहारो सम्वहान निब्बहई । तस्सभुवनेक-गुरूणो, णमो अणेगत वादरस्य ।। उक्त जैनाचार्य ने अनेकान्तवाद का महत्त्व सक्षिप्त में उपरोक्त गाया में स्पष्ट क्यिा है। वह वस्तुत सत्य है । अनेकान्तवाद के आधार पर पर सारे विश्व का कार्यभार चल रहा है। इसी अनेकान्तवाद को त्रिभुवन-गुरु होने की संज्ञा दी गई है। हमारे प्राचीन जैन शास्त्रो, ग्रथो मे अनेकान्तवाद के विचार बीज मे विद्यमान थे। प्राचीन आचार्यों ने उन बीज रूपी विचारो को लेकर विपुल साहित्य का सृजन किया अनेकान्तवाद वास्तव मे तीर्थकुरो की देन है। भगवान महावीर ने देश में विभिन्न विचारधारामो का प्रतिनिधित्व करने वाले-वाद-विद्यमान देखे तथा यह भी देखा कि उनमे से प्रत्येक के पास माणिक सत्य है, उनकी विचारशैली एकांगी है। यदि यह विचारक भनेकान्त-मार्ग का अवलम्बन करे तो उन्हें-सत्य-का साक्षात्कार हो सकता है। भगवान महावीर ने बडे कण्ट से यह भी अनुभव किया कि इस प्रकार एकागी विचारधारा का प्रतिनिधित्व करने वाले व्यक्ति परस्पर वाद-विवाद करते हैं तथा धार्मिक असहिप्णुता के कारण प्रशान्ति उत्पन्न करते है। विभिन्न वादो के परस्पर सघर्ष ने केवल देश मे नही अपितु सारे ससार मे इस प्रकार का वातावरण निर्माण किया है। इस कारण कोई व्यक्ति अपने से विभिन्न विचारधारा के प्रति न्याय करना चाहता है तो उसे अनेकान्त विचार-पद्धति से काम लेना होगा। अनेकान्त विचार-पद्धति में वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता का ध्यान रखा जाता है। यदि कोई व्यक्ति किसी वस्तु के सम्बन्ध में कोई विश्लेपण करे तो वह वस्तु का समग्र चित्र नही हो सकता । यदि हम उसी वस्तु के विभिन्न पहलुओ को एकत्रित कर लें तो वस्तु का समय चित्र सन्मुख आ सकता है । अनेकान्त विचार पद्धति से उत्पन्न . उद्भुत दृष्टिकोण को जैनाचार्यों [ ३५६
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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