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________________ को जानकर हममे परस्पर स्नेह होना स्वाभाविक था। काल की गति के साथ वह स्नेह बढता गया है और आज लोग कल्पना भी नहीं कर सकते कि जब हम अलग होते है और अपनी समस्याप्रो और कठिनाइयो का हल निकालने के लिए उन पर मिल कर विचार नही कर सकते तो यह दूरी हमे कितनी खलती है। परिचय की इस घनिष्ठता, पात्मीयता और भ्रातृतुल्य स्नेह के कारण मेरे लिए यह कठिन हो जाता है कि सर्व-साधारण के लिए उसकी समीक्षा उपस्थित कर सक । पर देश के आदर्श, जनता के नेता, राष्ट्र के प्रधान मत्री और सबके लाडले जवाहरलाल को, जिनके महान् कृतित्व का भव्य इतिहास सबके सामने खुली पोथी-सा है, मेरे भनुमोदन की कोई आवश्यकता नहीं है। दृढ और निष्कपट योढा की भाति उन्होने विदेशी शासन से अनवरत युद्ध किया। युक्त-प्रान्त के किसान-आन्दोलन के संगठनकर्ता के रूप में पहली 'दीक्षा' पाकर वह अहिंसात्मक युद्ध की कला और विज्ञान में पूरे निष्णात हो गये । उनकी भावनामो की तीव्रता और अन्याय या उत्पीडिन के प्रति उनके विरोव ने शीघ्र ही उन्हे गरीबी पर जिहाद बोलने को बाध्य कर दिया। दीन के प्रति सहज सहानुभूति के साथ उन्होने निधन किसान की अवस्था सुधारने के आन्दोलन की आग मे अपने को रोक दिया । क्रमश उनका कार्यक्षेत्र विस्तीर्ण होता गया और शीघ्र ही वह उसके विशाल सगठनकर्ता हो गए, जिसे अपने स्वाधीनता युद्ध का साधन बनाने के लिए हम सब समर्पित थे । जवाहरलाल के ज्वलन्त आदर्शवाद, जीवन मे कला और सौन्दर्य के प्रति प्रेम, दूसरो को प्रेरणा और स्फूर्ति देने की अद्भुत आकर्षण-शक्ति और ससार के प्रमुख व्यक्तियो की सभा में भी विशिष्ट रूप से चमकने वाले व्यक्तित्व ने, एक राजनैतिक नेता के रूप में, उन्हे क्रमश उच्च से उच्चतर शिखरो पर पहुंचा दिया है। पत्नी की बीमारी के कारण की गई विदेश यात्रा ने भारतीय राष्ट्रवाद-सम्वन्धी उनकी भावनामो को एक प्राकाशीय अन्तर्राष्ट्रीय तल पर पहुंचा दिया । यह उनके जीवन और चरित्र के उम अन्तर्राष्ट्रीय झुकाव का प्रारम्भ था। जो अन्तर्राष्ट्रीय अथवा विश्व-समस्याओं के प्रति उनके रवैये मे स्पष्ट लक्षित होता है। उस समय से जवाहरलाल ने कभी पीछे मुडकर नहीं देखा । भारत में भी और बाहर भी उनका महत्व बढता ही गया है । उनकी वैचारिक निष्ठा, उदार प्रवृत्ति, पनी, दृष्टि और भावनाओ की सच्चाई के प्रति देश और विदेशो की लाखो-लाख जनता ने श्रद्धाजलि अर्पित की है। प्रतएव यह उचित ही था कि स्वातन्य की उपा से पहले के गहन अन्धकार में वह हमारी मार्ग-दर्शक ज्योति वनें, और स्वाधीनता मिलते ही जब भारत के आगे सकट-पर सकट मा रहा हो तब हमारे विश्वास की धुरी हो और हमारी जनता का नेतृत्व करें। हमारे नये जीवन के पिछले कठिन वर्षों में उन्होंने देश के लिए जो अथक परिश्रम किया है, उसे मुझसे अधिक अच्छी तरह कोई नही जानता । मैने इस अवधि मे उन्हें अपने उच्च पद की चिन्तामओ और अपने गुरुतर उत्तरदायित्व के भार के कारण बडी तेजी के साथ बूढे होते देखा है। शरणार्थियो की सेवा में उन्होने कोई कसर नही उठा रखी और उनमे से कोई कदाचित ही उनके पास से निराश लौटा हो । राष्ट्र-सघ (कामनवेल्थ) की मन्त्रणाओं मे उन्होने उल्लेखनीय भाग लिया है और ससार के [ ३५३
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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