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________________ हुए विना सर्वथा मोक्ष हो जत्य, ऐसा मुझे मालूम नहीं होता, और जहाँ सम्पूर्ण जान है वहाँ सर्व भापा-ज्ञान समा जाता है, यह कहने की भी आवश्यकता नहीं। भाषाज्ञान मोक्ष का हेतु है? , तथा वह जिसे न हो उसे वाकी दूसरी उपासना सर्वथा मोक्ष का हेतु नही है-वह उसके साधन का ही हेतु होती है । वह भी निश्चय से हो ही, ऐसा नही कहा जा सकता। प्रश्न (२५)-ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर कौन थे ? उत्तर:-सृष्टि के हेतु रूप तीनो गुणों को मानकर उनके आश्रम से उनका यह रूप बताया हो, तो यह वात ठीक बैठ सकती है, तथा उस प्रकार के दूसरे कारणो से उन ब्रह्मा आदि का स्वरूप समझ मे आता है परन्तु पुराणो में जिस प्रकार से उनका स्वरूप कहा है, वह स्वरूप उसी प्रकार से है, ऐसा मानने मे मेरा विशेप झुकाव नहीं है । क्योकि उनमे बहुत से रूपक उपदेश के लिए कहे हो, ऐसी भी मालूम होता है। फिर भी उसमे उनका उपदेश के रूप में लाभ लेना, और ब्रह्मा आदि के स्वरूप का सिद्धान्त करने की जजाल मे न पड़ना, यही मुझे ठीक लगता है। प्रश्न (२६)-यदि मुझे सर्प काटने आवे तो उस समय मुझे उसे काटने देना चाहिए या उसे मार डालना चाहिए ? यहाँ ऐसा मान लेते हैं कि उसे किसी दूसरी तरह हटाने की मुझमें शाक्ति नहीं है ? उत्तर -सर्प को तुम्हें काटने देना चाहिए, यह काम बताने के पहले तो कुछ सोचना पड़ता है, फिर भी यदि तुमने यह जान लिया हो कि देह अनित्य है, तो फिर इस आसारभूत देह की रक्षा के लिए, जिसकी उसमे प्रीति है, ऐसे सर्प को मारना तुम्हें कैसे योग्य हो सकता है ? जिसे आत्महित की चाहना है, उसे तो फिर अपनी देह को छोड देना ही योग्य है । कदाचित यदि किसी को प्रात्म-हित की इच्छा न हो तो उसे क्या करना चाहिए? तो इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि उसे नरक आदि मे परिभ्रमण करना चाहिए, अर्थात् सर्प को मार देना चाहिए। परन्तु ऐसा उपदेश हम कैसे कर सकते है ? यदि अनार्य-वृत्ति हो तो उसे मारने का उपदेश किया जाय, परन्तु वह तो हमें और तुम्हें स्वप्न में भी न हो, यही इच्छा करना योग्य है। अब सक्षेप में इन उत्तरो को लिखकर पत्र समाप्त करता हूँ। पट्दर्शन समुच्चय के समझने का विशेप प्रयत्न करना । मेरे इन प्रश्नोत्तरो के लिखने के सकोच से तुम्हें इनका समझना विशेप पाकुलताजनक हो, ऐसा यदि जरा भी मालूम हो, तो भी विशेषता से विचार करना, और यदि कुछ भी पत्र द्वारा पूछने योग्य मालूम दे तो यदि पूछोगे यो प्राय करके उसका उत्तर लिखूगा । विशेप समागम होने पर समाधान होना अधिक योग्य लगता है। लिखित आत्मस्वरूप मे नित्य निष्ठा के हेतु भूत विचार की चिंता में रहने वाले रायचन्द का प्रणाम ! ३४८ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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