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________________ मैं किन-किन का कृतज्ञ हूँ अपनी कलम से FIRStandar emaanapurna 'जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी' सर्वप्रथम मैं अपनी जननी माता भगवती देवी (जो कि भुप्रसिद्ध रईस ला० मुरलीधरजी मोनीपत निवासी की इकलौती बेटी थी) उनका आभारी हूँ। वैसे तो मेरी माताजी ने और पुत्र व पुत्रियों को जन्म दिया परन्तु उनको मेरे लिए तो गर्भ-काल मे ही बहुत मोह था जहाँ और पुत्र-पुत्रियो ने उनके नी मास गर्भ मे रहने के बाद जन्म लिया वहा मैने अपनी माता के गर्भ मे १२ माम रहने के बाद जन्म लिया। बाल्यकाल मे धार्मिक शिक्षा इनके द्वारा ही मिली और जो भी धार्मिक वृत्ति थोडी बहुत मुझ मे है यह सब उन्ही की कृपा का फल है। अभी मैं १५ साल का ही था कि पूज्य पिताजी का साया सर से उठ गया। माताजी को सब भार सम्भालना पड़ा। उन्होंने नम्रता, अतिथि-सत्कार, कृतज्ञता तथा देश व समाज के लिए सेवा-भाव का सवक पढाया जिसके कारण मैं समाज व देश की कुछ सेवा कर पाया हूँ और गौरव के साथ कहने का साहम रखता हूँ कि यदि मेरे पास वन नही है तो भी बहुत से धनियो से मैं बड़ा धनी हूं क्योकि जीवन में धनियो की मुझ पर वहुत कृपा रही है और है जिसके कारण मैं बड़ी से बडी आपत्ति मे से निकलकर अटल खडा रहा हूँ और इज्जत-आवरू व विचारो मे कोई फर्क नहीं माने दिया। मेरी माताजी का देहान्त ७३ वर्ष की आयु मे हुआ और मरते समय मुझे जो वह आशीर्वाद दे गई है उससे मुझे अपने ऊपर पूरा भरोसा है कि जब तक मै जीवित रहूंगा मेरी इज्जत व पावरू बनी रहेगी और वडी से बड़ी कठिनाइयो को हंसता हुआ झेल जाऊगा। मेरा अपनी स्वर्गीय माताजी के चरणों में सादर प्रणाम। amzyri" . -: अभिवादन गीलस्य, नित्य वृद्धोपसेविन चत्वारि तस्य वर्धन्ते, प्रायुविधायगो वलम् । जो सदैव अपने माता-पिता, गुरुजनो और वृद्धजनो की सेवा करता है उसकी आयु, विद्या, यश और बल की वृद्धि होती है। मेरे पिताजी व्यापारी थे और सारी उम्र उन्होने बजाजे और सरफि का धन्धा किया। वह हमेशा कहा करते थे कि वेटा छावड़ी बेच कर खाना ठीक है, नौकरी ठीक नही। वह १८८२-८३ के मैट्रिक पास थे। उन दिनो का मैट्रिक आज के ग्रेजुएट्स से वेदरना बेहतर था।
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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