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________________ आत्मा निज भाव का अर्थात् गन, दर्शन (यथा-स्थित निश्चय) और सहज-समाधि परिणाम का कर्ता है; अजान दशा में क्रोध, मान, माया, लोभ इत्यादि प्रकृतियो का कर्म है, और उस भाव के फल भोक्ता होने से प्रसगवश घट-पट आदि पदार्थों का निमित्त रूप से कर्ता है। अर्थात् घट पट आदि पदार्थों का मूल द्रव्यो का वह कर्ता नहीं, परन्तु उसे किसी आकार में लाने रूप क्रिया काही कर्ता है। यह जो पीछे की दशा कही है, जैनदर्शन उसे 'कर्म' कहता है, वेदान्त दर्शन उसे 'भ्रान्ति' कहता है, और दूसरे दर्शन भी इसी से मिलते-जुलते इसी प्रकार के शब्द कहते है। वास्तविक विचार करने से आत्मा घट-पट प्रादि का तथा क्रोध आदि का कर्ता नही हो सकती, है-वह केवल निजस्वरूप ज्ञान-परिणाम का ही कर्ता है-ऐसा स्पष्ट समझ मे आता है। • (३) अज्ञानभाव से किए हुए कर्म प्रारम्भकाल से बीजरूप होकर समय का योग पाकर फलरूप वृक्ष के परिणाम से परिणमते है, अर्थात् उन कर्मों को आत्मा को भोगना पंडता है । जैसे अग्नि के स्पर्श से उष्णता का सम्बन्ध होता है और वह उसका स्वाभाविक वेदनारूप परिणाम होता है, वैसे ही आत्मा को कोष आदि भाव के कर्तापने से जन्म, जरा, मरण प्रादि वेदनारूप परिणाम होता है । इस बात का तुम विशेषरूप से विचार करना और उस सम्बन्ध में यदि कोई प्रश्न हो तो लिखना । क्योकि इस बात को समझकर उससे निवृत्त होने रूप कार्य करने पर जीव को मोक्ष दशा प्राप्त होती है। प्रश्न (२)-ईश्वर क्या है । वह जगत का कर्ता है, क्या वह सच है ? उत्तर-(१) हम-तुम कर्म-बन्धन मैं फसे रहने वाले जीव हैं। उस जीव का सहज स्वरूप अर्यात कमरहितपना-मात्र एक आत्मा स्वरूप जो स्वरूप है, वही ईश्वरपना है। जिसमे ज्ञान प्रादि ऐश्वर्य है वह ईश्वर कहे जाने योग्य है और वह ईश्वरपना आत्मा का सहज स्वरूप है। जो स्वरूप कर्म के कारण मालूम नही होता, परन्तु उस कारण को अन्य स्वरूप जानकर जव प्रात्मा की ओर दृष्टि होती है, तभी अनुकर्म से सर्वशता प्रादि ऐश्वर्य उसी प्रात्मा-मे मालूम होता है । और इससे विशेष ऐश्वयंयुक्त कोई पदार्थ-कोई भी पदार्थ ईश्वर नही है इस प्रकार का निश्चय से मेरा अभिप्राय है। (२) वह जगत का कर्ता नही है अर्थात् परमाणु आकाश आदि पदार्थ नित्य ही होने सभव है, वे किसी भी वस्तु मे से बनने सभव नहीं। कदाचित ऐसा माने कि वे ईश्वर मे से बने है तो यह बात भी योग्य मालूम नहीं होती, क्योकि यदि ईश्वर को चेतन मानें तो फिर उससे आकाश वगैरह फैसे उत्पन्न हो सकते है ? क्योकि चेतन से उड़ की उत्पत्ति कभी सभव ही नहीं होती। यदि ईश्वर को जड़ माना जाय तो वह सहज ही अनैश्वर्यवान ठहरता है तथा उससे जीवरूप चेतन पदार्थ की उत्पत्ति भी नहीं हो सकती । यदि ईश्वर को जड और चेतन उभयरूप माने तो फिर जगत भी जड चेतन उभयरूप होना चाहिये । फिर तो यह उमका ही दूसरा नाम ईश्वर रखकर सतोष रखने जैसा होता है । तथा जगत का नाम ईश्वर रखकर सतोप रख लेने की अपेक्षा जगत को जगत कहना ही विशेष योग्य है । कदाचित परमाणु, आदि को नित्य मानें और ईश्वर को कर्म आदि के फल देने वाला माने, तो भी यह वात सिद्ध होती हुई नहीं मालूम होती। इस 'वपय पर षट्दर्शन समुच्चय मे श्रेष्ठ प्रमाण दिये है। [ ३४१
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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