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________________ पुस्तको को पढ़ जाना, कठस्थ कर लेना, अथवा उनमे जो कुछ कहा है, उसे मानना भी नहीं है। धर्म प्रात्मा का गुण है और वह मनुष्य जाति मे दृश्य अथवा अदृश्य रूप से मौजूद है । धर्म से हम मनुष्य जीवन का कर्तव्य समझ सकते है । धर्म द्वारा हम दूसरे जीवो के साथ अपना सच्चा सम्बन्ध पहचान सकते है । यह स्पष्ट है कि जब तक हम अपने को न पहचान ले, तब तक यह सब कभी भी नहीं हो सकता । इसलिए धर्म वह साधन है, जिसके द्वारा हम अपने आपको स्वय पहिचान सकते है। यह साधन हमे जहा कही मिले, वही से प्राप्त करना चाहिए । फिर भले ही वह भारत वर्ष मे मिले, चाहे यूरोप से पाए या अरवस्तान से आए । इन साधनो का सामान्य स्वरूप समस्त धर्मशास्त्रो में एक ही सा है । इस बात को वह कह सकता है जिसने भिन्न-भिन्न शास्त्रो का अभ्यास किया है । ऐसा कोई भी शास्त्र नहीं कहता कि असत्य बोलना चाहिये प्रथवा असत्य आचरण करना चाहिए । हिंसा करना किसी भी शास्त्र में नहीं बताया । समस्त शास्त्रो का दोहन करते हुए शकराचार्य ने कहा है-'ब्रह्म सत्य जगन्मिथ्या' । उसी बात को कुरानशरीफ मे दूसरी तरह कहा है कि ईश्वर एक ही है और वही है, उसके विना और दूसरा कुछ नही । वाइविल में कहा है, कि मैं और मेरा पिता एक ही है । ये सब एक ही वस्तु के रूपातर है। परन्तु इस एक ही सत्य के स्पष्ट करने मे अपूर्ण मनुष्यो ने अपने भिन्न-भिन्न दृष्टि-विन्दुओ को काम में लाकर हमारे लिए मोहजाल रच दिया है, उसमे से हमे बाहर निकलना है। हम अपूर्ण है और अपने से कम अपूर्ण की मदद लेकर आगे बढ़ते हैं और अन्त मे न जाने अमुक हद तक जाकर ऐसा मान लेते है कि आगे रास्ता ही नहीं है, परन्तु वास्तव में ऐसी वात नहीं है । अमुक हद के बाद शास्त्र मदद नहीं करते, परन्तु अनुभव करता है । इसलिए रायचन्द भाई ने कहा है : ए पद श्री सर्व दीठु ध्यानमा, कही शवया नही ते पद श्रीभगवत जो एह परमपदप्राप्तिनु कयु व्यान मे, गजावगर पणहाल मनोरथ रूपलो । इसलिए अन्त मे तो आत्मा को मोक्ष देने वाली आस्मा ही है। इस शुद्ध सत्य का निरूपण रायचन्द भाई ने अनेक प्रकारो से अपने लेखो मे किया है। रायचन्द भाई ने बहुत-सी धर्मपुस्तको का अच्छा अभ्यास किया था। उन्हे संस्कृत और मागधी भाषा के समझने मे जरा भी मुश्किल न पडती थी। उन्होने वेदान्त का अभ्यास किया था, इसी प्रकार मागवत और गीताजीका भी उन्होने अभ्यास किया था। जैन पुस्तके तो जितनी भी उनके हाथ मे पाती, वे वाच जाते थे। उनके वाचने और ग्रहण करने की शक्ति प्रगाव थी। पुस्तक का एक बार का वाचन उन पुस्तको के रहस्य जानने के लिए उन्हें काफी था। कुरान, जदप्रवेस्ता आदि पुस्तकें भी वे अनुवाद के जरिये पढ गए थे। वे मुझसे कहते थे कि उनका पक्षपात जैनधर्म की ओर था। उनकी मान्यता थी कि -जिनमगा मे पात्मज्ञान की पराकाष्ठा है, मुझे उनका यह विचार बता देना आवश्यक है। इस विषय मे अपना मत देने के लिए मैं अपने को विल्कुल अनधिकारी समझता है । - परन्तु रायचन्द भाई का दूसरे धर्मों के प्रति अनादर न था, बल्कि वेदान्त के प्रति
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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