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________________ जैन कोआपरेटिव बैंक लिमिटेड नई दिल्ली रायसाहब ला० जोतिप्रसावजी जैन माज से लगभग २५ वर्ष पूर्व जब इस बैंक की स्थापना हुई उस समय जनता की आर्थिक हालत बहुत कमजोर थी। देश मे चीजो के भाव एक दम गिर गये थे और इस डिफ्लेशन ने समाज के सभी वर्गों को भारी कठिनाई में डाल दिया था। क्या किसान, क्या मजदूर, क्या व्यापारी पर क्या कर्मचारी-सभी आर्थिक सकट मे थे । पास-पास के गांवो में लोग रोजगार और नौकरी की खोज में दिल्ली पा रहे थे। उस समय हमारे भाइयो को व्यापार के लिए धन की आवश्यकता थी। लोगो को कम ब्याज पर रुपया मिलना बहुत ही कठिन काम था । इन कठिन परिस्थितियो में इस बैंक की स्थापना करने का श्रेय स्वर्गीय लाला तनसुखरायजी को है। दिनांक २० सितम्बर, १९३६ को जैन भाइयो की एक साधारण सभा में स्वर्गीय लाला तनसुखरायजी की योजना को स्वीकार किया गया और जैन को-ओपरेटिव बैंक लि. नई दिल्ली के नाम से इस सहकारी संस्था की स्थापना हुई। यह खुशी की बात है कि लालाजी ने जिस पौध को लगाया था वह मब मुन्दर वृक्ष बन चुका है जिससे हम सभी लाभ उठा रहे है। अतः हम अपने संस्थापक प्रधान को उनके इस महान सेवा-कार्य के लिए अपनी श्रद्धाजलि अर्पित करते है। पहले दिन इस वैक के २१ सदस्य बने जिनके हिस्सो की पूजी ५५६ रुपये पी। सहकारी विभाग की ओर से बैंक का रजिस्ट्रेशन १६-२-१९४० को स्वीकृत हुआ और लगभग दो साल की कोशिशो के बाद भी इसकी सदस्य संख्या ३६ तक ही पहुंची। इसके आठ वर्ष के पश्चात् भी वैक की सदस्य सख्या १०१ से धागे न बढ़ सकी। इस आन्दोलन तथा संस्था के प्रति जन समाज मे एक नया विश्वास पैदा होने के कारण फिक्सड डिपोजिट की रकम मे अपूर्व वृद्धि हुई जब कि ३० जून, १९५६ तक फिक्सड डिपोजिट की जो रकम केवल २॥ हजार रुपये तक थी, वह वढते-वढते अब एक लाख २० हजार रुपये तक पहुंच चुकी है। वैक इस समय यद्यपि शहर के बीच मै है किन्तु दिल्ली की आवादियों दूर-दूर तक फैली होने के कारण सदस्यो को माने जाने की बड़ी कठिनाई होती है। इसके अतिरिक्त ऐसे प्रश्न भी होते है जिन्हे स्थानीय व्यक्ति भली प्रकार हल कर सकते है। इसलिए हम इस सुझाव पर भी विचार कर रहे है कि नगर के विभिन्न क्षेत्रो मे बैंक की शाखाएं और क्षेत्रीय समितियों बनाई जाएँ जिनसे निकट सम्पर्क बना रहे और आने-जाने की वर्तमान असुविधा भी दूर हो जाय । इस बैंक द्वारा जनता का विशेष लाभ हो रहा है। मैं इसके संस्थापक के प्रति अत्यन्त मनुग्रहीत हूँ।
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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