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________________ यद्यपि कुछ कुछ लोग, मार्ग रोकेगे आकर किन्तु शीघ्र ही भाग जायेगे धक्के खाकर । यदपि मिलेगे मार्ग मे, तुमको कितने शूल, पग रखते बन जायेंगे वे सबके सब फूल । यही आश्चर्य है । युद्ध स्वार्थ अथवा असत्य से करना होगा, जीने ही के लिए, तुम्हे अव मरना होगा। नव न मरे अब ही मरे, मरना निस्सन्देह, अव न मरे सब कुछ रहे, रहे न केवल देह । देह ममता तजो॥ सुनो-सुनो ! जो प्राज, कही साहस तुम हारे, डूबोगे यो, नही लगोगे कभी किनारे । तन-मन-धन से देश हित, करो प्रमाद विसार; सबके मग मिलकर सहो, भूख-प्यास या मार। पुनः मानन्द भी॥ पिछड गये हो बहुत, लड रहे हो मापस मे, पकड़-पकड रूढियाँ, घोलते हो विष रस में । ऐसा ही करते रहो, तो विनाश है पास, वस भविष्य मे देयगा, तव-परिचय इतिहास । एक मृत जाति कह ॥ -:. लेखनी हे लेखनी निर्भीक लिख दे कोम की असली दणा । प्रत्येक मानव रूढ़ियो के जाल मे कैसा फैसा ? करनी पडेगी बन्धु कृत्यो की तुझे मालोचना। प्रियवर हमारे क्या कहेगे यह न मन में सोचना ॥१॥ प्रिय सत्य लिखने में तुझे परमेश पति का भय नहीं। ध्रुव सत्य से डरकर कभी होती जगत में जय नहीं। लज्जा-विवश यदि दोप हम कहते नहीं तो भूल है। भीषण तनिक-सी भूल वह सर्वत्र अवनति मूल है ॥२॥ जव तक न दोपो की कड़ी आलोचना की जायगी। तव तक न यह नर जाति अपना पथ-प्रदर्शक पायगी ।। कर्तव्य घश करना पडे जो कार्य इस समार मे। वह कार्य कर आधार प्रभु कर्तव्य पारावार मै ॥३॥ २३६ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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