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________________ नीतिकुशल चारित्रवान्, निर्भीक साहसी और विनीत । उत्साही अभिमान रहित, गम्भीर विवेकी और पुनीत ॥ धर्म अर्थ अरु काम मोक्ष, सब एक साथ तुमने सावे । साम दाम और दण्ड भेद से, जन समूह रक्ता बाँबे ॥ पुण्ययोग सब शुभ कर्मों के, तव चरणों पर न्यौछावर । और विब्द की धवल कीति सब, तुम्हे रिझाये त्याग प्रवर ॥ भरत चक्रवर्ती-सा वैभव, पाकर भी तुम अमल धवल । और उन्ही से पचम युग में, पत होन जल भिन्न कमल || श्री दीनो के प्राण, पीड़ितों के रक्षक, बावार महान । जैन जाति के मेरुदण्ड, यो विद्वद्गुण के मित्र प्रधान || अन्न, वस्त्र, प्रोपधि, चिक्षा के मुक्तहस्त दानी विद्वान | धर्मं दिवाकर श्री कुल भूषण, मूनिमान आदर्श महान || हम छोटे बालक सब तेरे, fast और निर्भीक रह रहे श्रीचरणो की छाया में | इन्द्रजाल-सी माया मे ॥ तव प्रसाद मे हीरा भैया, होरा सम है ज्योतिर्मान । और हमारे छोटे भैया, भी उनमे ही कीरतिवान ॥ श्रात्म-ज्योति की जगी दीपिका, कचन-सी आभा पाकर । आत्मलीन हो गई आत्मा, प्रेमामृत धन बरसाकर ॥ आज प्रार्थना करते हम सब यह प्राणीप हमें भी दो । तेरे पदचिन्हों पर चल दें, हममें इतना बल भर दो ॥ प्रभु से इतनी विनय हमारी, व्येय तुम्हारा प्राप्त तुम्हे । तुमसी घवल कीर्ति श्री गरिमा, धर्म भाव हो प्राप्त हमे ॥ अवनि और अंवर तक छाये, इस गुण या गाथा की जय । गगन गुंजा दें हम सब मिलकर पूज्य पिता की जय जय जय ॥ * धर्म जो कि पुस्तको, मन्दिगे और मठो मे बन्द है, उसे जीवन मे लाना होगा। बिना जीवन में उतारे केवल ग्रास्तिकवाद को दुहाई देने मात्र से क्या होने वाला है । २३४ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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