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________________ २३२ ] धन-वैभव की जिस श्रांधी से, अस्थिर सब संसार । उससे भी न कभी डिग पावे, मन वन जाय पहार || मुझे० ॥ असफलता की चोटो से नहि, दिल मे पडे दरार । अधिकाधिक उत्साहित होऊ, मानू कभी न हार ॥ मुझे० ॥ दुख-दरिद्रता - कृत अति श्रम से तन होवे बेकार । तो भी कभी निरुद्यम हो नहि, बैठूं जगदाधार । मुझे० ॥ जिसके प्रागे तन वल धन बल, तृणवत तुच्छ असार । महावीर जिन ! वही मनोबल, महामहिम सुखकार | मुझे० ॥ X X X समाज पाठक अहिसा धर्म पर स्थित धर्म की भोत है । करना दया जी मात्र पर यह जैन धर्म पुनीत है || निज की दशा उल्लेख मे यह लेखनी बन कर्कशा । कैसे लिखे निज की घृणा मय दुखप्रद हा दुर्दशा ||१|| X जैसा अहिसा धर्म निज वक्तव्य मे रहता यहाँ । वैसा अहिंसा धर्म हा । कर्तव्य मे रहता कहाँ ? जल छानने मे बस समक्ष रक्खा महिला धर्म है । करते कुठाराघात नर पर हाय । कैसा कर्म है ॥२॥ श्रीमान् होकर हम अविद्या अन्धता के दास है । परमार्थ से प्रति दूर होकर स्वार्थता के पास है || निज पूजते है पीर पैगम्बर कुगुरु हित जान के । श्रद्धा हटी निज धर्म से मिथ्यात्व मग को मान के || ३ || उपहास मस्तक का हुआ जिससे न समझे तत्व को । हटग्राहिता धारण करे छोडा धवल सम्यक्त्व को ॥ होकर कलकी धर्म को हमने कलकित कर दिया | वर्ण अनुपम में सदा को पाप अकित कर दिया ॥४॥ हम-सी अधम सन्तान से सद्धर्म- दीपक बुझ चला । श्रावक न होते और कुछ होते तभी होता भला ॥
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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