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________________ २२४ ] नीच और अछूत नाली के मैले पानी से मे बोला हहराय, हौले वह रे नीच कही तू मुझ पर उचट न जाय । 'भला महाशय' कह पानी ने भरी एक मुसकान, बहता चला गया गाता सा एक मनोहर गान ॥ एक दिवस में गया नहाने किसी नदी के तीर, ज्योही जल ग्रञ्जलि मे लेकर मलने लगा शरीर । त्योही जल वोला में ही हू उस नाली का नीर; लज्जित हुआ, काठ मारा सा मेरा सकल शरीर ॥ २ ॥ संतुलन तोडी मुँह मे डाली वह बोली मुसकाय, श्रह महाशय । बढी हुई मे नाली का जल पाय । फिर क्यो मुझ अछूत को मुँह मे देते, हो महाराज सुन कर उसके बोल हुई हा ! मुझको भारी लाज ॥ ३॥ खाने को बैठा भोजन मे ज्योही डाला हाथ; त्योही भोजन बोल उठा चट विकट हँसी के साथ । 11 नाली का जल हम सबने किया एक दिन पान, अतः नीच हम सभी हुए फिर क्यो खाते श्रीमान ॥ ४ ॥ एक दिवस नभ में प्रभ्रो की देखी खूब जमात; जिससे फडक उठा हर्षित हो मेरा सारा गात । 1 यो गाने लगा कि आनो अहो | सुहृद घन वृन्द । बरसो, शस्य बढाओ, जिससे हो हमको श्रानन्द || ५ || वे बोले, हे बन्धु, सभी हम है अछूत श्री नीच; क्योकि पनाली के जल कण भी है हम सबके बीच । कही अछूतो मे ही जाकर बरसेंगे जी खोल, उनके शस्य बढेगे, होगा उनको हर्ष अतोल ॥ ६ ॥
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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