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________________ वैर-विरोध, पक्षपातादिक, ईर्पा, घृणा सकल दुष्कार । रह न सकें भारत मे ऐसा, यरल करो तुम धन समुदार। शिक्षा का विस्तार करो यो, रहे न अनपढ कोई शेप ।। सब पढलिख कर चतुर वनें प्रो, समझे हित-अनहित सविशेष ॥ करें देग उत्थान सभी मिल, फिर स्वराज्य मिलना क्यो दूर? पैदा हो 'युगवीर' देश मे, तब क्यो रहे दशा दुस्ख-पूर ॥ प्रवल उठे उन्नति-तरग तब, देखें सब भारत-उत्कर्ष । धुल जावे सब दोप कालिमा, मुखपूर्वक दिन कटें सहर्ष ॥ धर्म-स्थिति निवेदन कहाँ वह जनधर्म भगवान ! जाने जग को सत्य सुझायो, टालि अटल अजान । वस्तु-तत्व पै कियो प्रतिष्ठित, अनुपम निज विज्ञान ।। कहाँ० ॥ साम्यवाद को प्रकृत प्रचारक, परम अहिंसावान । नीच ऊँच निरधनी-धनी पै, नाकी दृष्टि समान ।। कहाँ० ॥ देवतुल्य चाण्डाल बतायो, जो है समवित वान । शूद्र, म्लेच्छ, पशुहू ने पायो, समवशरण में स्थान । कहाँ० ॥ सती-दाह, गिरिपात, जीव वलि, माशासन मद-पान । देव मूढता प्रादि मेटि सब, कियो जगत कल्यान । कहाँ०॥ कट्टर वैरी ह जाकी-क्षमा, दयामय वान । हठ तजि, कियो अनेक मतन को, सामजस्य-विधान ।। कहाँ० ॥ अब तो रुप भयो कछु औरहि, सकहिं न हम पहिचान । समता-सत्य-प्रेम ने इक सग, यातें कियो पयान ॥ कहाँ० ।। जीवन सरस भी है, नीरस भी है । सुख भी है, दुख भी है । सुख कुछ भी है, कुछ भी नही है । नीरस को सरस, दु ख को मुख, कुछ भी नहीं को सब बनाने वाला कलाकार है। पदार्थ प्राप्ति पर जो मानन्द मिलता है, वह तो क्षणिक होता है ।"किन्तु वस्तुनिरपेक्ष मानन्द ही स्थायी होता है। २२२ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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