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________________ हृदयोद्गार कव पायगा वह दिन कि बनू साधु विहारी ॥टेक॥ दुनिया मे कोई चीज मुझे थिर नही पाती, और मायु मेरी यो ही तो है बीतती जाती। मस्तक पै खडी मौन, वह सब ही को है भाती, राजा हो, चाहे राणा हो, हो रक भिखारी ॥१॥ कब० सपत्ति है दुनिया की वह दुनिया में रहेगी, काया न चले साथ, वह पावक मे दहेगी। इक ईट भी फिर हाथ से हगिज़ न उठेगी, वगला हो चाहे कोठी हो, हो महल अटारी ।।२।। कव. बैठा है कोई मस्त ही, मसनद को लगाये, मागे है कोई भीख फटा वस्त्र विछाये । अधा है कोई, कोई, बधिर हाथ कटाये, व्यसनी है कोई मस्त, कोई भक्त पुजारी ॥३॥ कव. खेले है कई खेल, धरे रूप घनेरे; स्थावर मे सो मे भी किये जाय न सेरे। होते ही रहे है यो सदा शाम सवेरे, चक्कर मे घुमाता है सदा कर्म मदारी ॥४॥ कब० सब ही से मैं रक्खू गा सदा दिल की सफाई, हिन्दू हो, मुसलमान हो, हो जैन ईसाई । मिल-मिल के गले बाँटेगे हम प्रीति मिठाई, आपस मे चलेगी न कभी द्वेष-कटारी ॥५॥ कव० सर्वस्व लगाके मैं करूं देश की सेवा, घर-घर पे मै जा-जा के रखू ज्ञान का मेला । दुखो का सभी जीवो के हो जायगा छेवा, भारत मे न देखू गा कोई मूर्ख-अनारी ॥६॥ कब जीवो को प्रमादो से कभी मै न सताल, करनी के विषय देव है, अब न लुभाऊ । ज्ञानी हू सदा ज्ञान की मैं ज्योति जगाऊँ, समता मे रहूगा मैं सदा शुद्ध-विचारी ॥७॥ कब० [२१७
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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