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________________ देखिये, मैदाने उन्नति में कुलाचे भर रहे, कौन हैं, निज तेज से विस्मित सवो को कर रहे ? नव नवाविष्कार प्रतिदिन, कौन कर दिखला रहे ? देव दुष्कर कार्य विद्य त-शक्ति से करवा रहे ?|| हो रहा गुणगान किनके, यह कला-कौशल्य का ? बज रहा है दुन्दुभी, विज्ञान-साहस शौर्य का? कौन है ये वन रहे, विद्या-विशारद आजकल ? नीतिविद, सतकर्म शिक्षक, पथ-प्रदर्शक आजकल ?।। सोचिये, ये है वही, कहते जिन्हे तुम नीच थे, धर्मशून्य असभ्य कह कर आप बनते ऊंच थे। सद्विचाराचार के जो, पात्र भी न गिने गये, नहा डाला उसी दम यदि, कभी इनसे छू गये ॥१०॥ अनवरत उद्योग से औ, आत्मवल विस्तार से, अभ्युदय इनका हुआ है, प्रवल एक्य विचार से । स्वावलम्बन से इन्हे जो, सफलता अनुपम मिली, शोक ! उसको देख करके, सीख तुमने कुछ न ली ॥११॥ मात्म-बल गौरव गवाया, भूल शिथिलाचार मे, फंस गये हो वेतरह तुम, जाति-भेद-विचार में। साथ ही अपरीतियो का जाल है भारी पडा; हो रहा है कर्मबन्धन से भी यह बन्धन कड़ा ॥१२॥ तोड़ यह बन्धन सकल, स्वातन्त्र्यवल दिखलाइये; लुप्त गौरव जो हुआ, उसको पुन. प्रकटाइये । पूर्वजो को कीति को वट्टा लगाना क्या भला ? सच तो यो है, व मरना ऐसे जीवन से भला ॥१३॥ जातिया, अपनी समुन्नति-हेतु सब चचल हुई; पर न आया जोश तुम मे, क्या रगें ठिठरा गई ? पुरुष हो, पुरुषार्य करना, क्या तुम्हे आता नहीं ? पुरुष-मन पुरुषार्थ से, हरगिज न धवराता कही ॥१४॥ [२१५
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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