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________________ कायर वचन न मुख से बोले, ज्ञान सुधा रस घट-घट घोले । सत्य तुला मे सव कुछ तोलें, जब तक तन में प्रान । हृदय मे गूजे ऐसी तान। निर्वल कही न समझे जावे, जग में कभी न दीन कहावे, विघ्न करोडो सिर पर आवे, मेले सव शुभ जान । हृदय मे गूजे ऐसी तान। क्यो कर हो कल्यान मुझे दो ऐसा वर भगवान |टेक॥ सुख-दुख मे ना धर्म को भूलू और न घबराऊ । जुल्मो-सितम चाहे जितने हो, कभी न भय खाऊ ॥ भले ही तन से निकले जान । मेरे तन से दुश्मन तक का, कभी न हो अपकार । वालक वृद्ध युवा सबका ही, पूर्ण करू सत्कार ।। इसी मे समझू अपनी शान । देश के हित में मरना सीखू, देश के हित जीना। तीरो तुफग भी इसपै वरस, अडादऊ सीना ॥ देश का सह न सकू अपमान । चाहे जान भले ही जावे, छूटे कभी न धर्म । देश-जाति की सेवा करना, समझू अपना कर्म ।। यही है वीरों की पहिचान । भारत मे से कलह ईर्पा, फूट का निकले बीज । इसने भारत गारत करके, वना दिया है नीच ।। - गुजादू मधुर प्रेम की तान। यह नरभव कही व्यर्थ न जावे, सोच-समझ ए 'दास' । मोक्ष मिलन की इच्छा है तो कर्मों का कर नाश ।। तभी होगा तेरा कल्याण । २०२ ]
SR No.010058
Book TitleTansukhrai Jain Smruti Granth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJainendrakumar, Others
PublisherTansukhrai Smrutigranth Samiti Dellhi
Publication Year
Total Pages489
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size16 MB
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